नवउदारवादी व्यवस्था में पाबंदियों का खेल
भारत जब नवउदारवादी व्यवस्था में शामिल नहीं हुआ था, तत्कालीन सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोपीय समाजवादी देशों के साथ उसकी ‘रुपया भुगतान प्रणाली’ चला करती थी। इस प्रणाली के अंतर्गत, मुख्य अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षित मुद्रा के रूप में अमरीकी डालर का इस्तेमाल न तो इन सौदों के संबंध में भुगतान के लिए किया जाता था और न ही दोनों पक्षों के बीच व्यापार के संबंध में लेन-देन को प्रदर्शित करने के लिए इकाई के रूप में डालर का उपयोग किया जाता था। संक्षेप में यह कि इन ‘रुपया भुगतान व्यवस्थाओं’ के तहत डालर का न तो लेन-देन या सर्कुलेशन के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जाता था और न इस व्यापार के हिसाब-किताब की इकाई के तौर पर।
रुपया भुगतान व्यवस्था का अर्थ और अंत
इसके बजाए, इस तरह की व्यवस्था में द्विपक्षीय व्यापार को भारतीय रुपयों में प्रदर्शित किया जाता था या फिर रूसी रूबल में, जिसकी रुपए के साथ विनिमय की दर तयशुदा थी। इतना ही नहीं, इस तरह के व्यापार के क्रम में एक देश की, दूसरे देश पर जो देनदारी बनती थी, उसे फौरन चुकता करने की भी जरूरत नहीं होती थी। पुन: इन देनदारियों के चुकता किए जाने में भी, डालर कहीं नहीं आता था और इन देनदारियों को आगे खाते में जोड़ दिया जाता था और एक अवधि के बाद द्विपक्षीय स्तर पर उनका निपटारा किया जाता था। इस पूरी व्यवस्था के पीछे विचार यही सुनिश्चित करना था कि दोनों पक्षों के निर्यात, संबंधित देश के पास डालरों की कमी से बाधित नहीं हों। इसका अर्थ यह है कि इस तरह की व्यवस्था के माध्यम से जो व्यापार हो रहा था, वह अन्यथा हुआ ही नहीं होता। इसका अर्थ यह है कि ‘रुपया भुगतान व्यवस्था’ एक ‘व्यापार पैदा करने वाली’ व्यवस्था थी।
यह पूरी तरह से समझदारीपूर्ण व्यवस्था थी। अगर देश अ के पास वो माल हैं जिनकी देश ब को जरूरत है या ब के पास वो माल हैं जिनकी अ को जरूरत है, तो यह तो बिल्कुल बेतुकी ही बात लगती है कि ऐसे देश इन मालों के परस्पर लाभदायक विनिमय से सिर्फ इसलिए वंचित रह जाएं कि उन्होंने एक तीसरे देश, स के लिए इतने निर्यात नहीं किए हैं कि उक्त लेन-देन के लिए पर्याप्त डालर कमा लें। दूसरे शब्दों में वे विकसित देशों के लिए निर्यात के जरिए या ऐसे देशों के लिए निर्यात के जरिए जहां से डालर कमा सकते हों, पर्याप्त डालर नहीं कमा पाए हैं।
बहरहाल, नवउदारवादी अर्थशास्त्री ऐसी सभी व्यवस्थाओं का विरोध करते थे क्योंकि इस तरह की व्यवस्थाएं, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को डालर की दुनिया से बाहर ले जाते हैं। ये अर्थशास्त्री बड़े जोरों से यह दलील देते थे कि इस तरह की व्यवस्थाएं ‘व्यापार पैदा’ नहीं करती हैं बल्कि वे तो ‘व्यापार को मोडऩे’ का काम करती हैं। उनके विचार में यह तर्क ही गलत था कि ऐसी व्यवस्थाएं नहीं किए जाने से व्यापार बाधित हो रहा होगा। दूसरी तरह से कहा जाए तो, नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों का कहना था कि इस तरह के दोनों व्यापार सहयोगियों की डालर में आमदनियां तो आपूर्ति के पक्ष से ही बाधित या सीमित हो रही होती हैं न कि मांग के पक्ष से। यानी इन देशों के पास पर्याप्त डालर आय न होने पीछे वजह यह होती है कि उनके पास, घरेलू उपभोग के बाद, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचने के लिए पर्याप्त माल बचते ही नहीं हैं, न कि डालर की दुनिया के बाजारों में उनके मालों की पर्याप्त मांग न होना, उनके पास पर्याप्त डालर आय न होने के लिए जिम्मेदार होता है।
बहरहाल, सोवियत संघ तथा पूर्वी योरपीय समाजवाद के पराभव और उसके कुछ ही समय बाद भारत के नवउदारवाद को अपना लेने के बाद, इस बहस की कोई व्यावहारिक प्रासंगिकता ही नहीं रह गयी। नवउदारवाद ऐसी सभी व्यवस्थाओं के पूरी तरह से खिलाफ है और वह ‘एकीकृत’ विनिमय दर लागू किए जाने का आग्रह करता है। वह तो एकीकृत बाजार में, जिसमें विदेशी मुद्रा बाजार भी शामिल है, एक ही कीमत का हामी है। उसने वैसे भी ऐसी सभी व्यवस्थाओं को खत्म ही कर दिया है।
रूस पर पाबंदियां और द्विपक्षीय व्यापार समझौतों की वापसी
बहरहाल, पिछले कुछ समय से, पश्चिमी ताकतों के फरमानों के खिलाफ जाने वाले देशों के खिलाफ पाबंदियां लगाए जाने की पृष्ठभूमि में, इस तरह की पाबंदियों को धता बताने के तरीके के रूप में, इस तरह के द्विपक्षीय व्यापार समझौतों की बात फिर से चर्चा में आ गयी है। ईरान के खिलाफ आर्थिक पाबंदियां लगाए जाने से इस तरह की व्यवस्थाओं का पुनर्जन्म हुआ क्योंकि ईरान ने कुछ देशों के साथ ऐसी व्यापार व्यवस्थाएं कर लीं। और अब, यूक्रेन पर रूस की चढ़ाई के बाद, रूस के खिलाफ लगाई गयी कड़ी पाबंदियों के साथ, इस तरह की व्यवस्थाएं इतनी ज्यादा फैल सकती हैं, जितनी इससे पहले कभी नहीं फैली थीं। पूतिन ने चेतावनी दी है कि अमरीका और पश्चिमी ताकतें कोई पूरी दुनिया नहीं हैं बल्कि दुनिया का एक छोटा सा हिस्सा भर हैं। इसमें यह इशारा छुपा हुआ है कि अगर रूस को बहुत ज्यादा मजबूर किया गया तो वह, पश्चिमी पाबंदियों को निष्प्रभावी बनाने के लिए, देशों की बड़ी संख्या के साथ द्विपक्षीय समझौते कर लेगा।
रूस के खिलाफ अब तक जो पाबंदियां लगायी गयी हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रूसी बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं को, पश्चिमी दुनिया के वित्तीय ताने-बाने से काटे जाने का ही है। रूसी बैंकों का स्विफ्ट के नैटवर्क से काटा जाना, इसका सबसे स्वत:स्पष्टï लक्षण है। इसका अर्थ है रूस द्वारा निर्यातों के जरिए कमाए गए या वित्तीय प्रवाहों के जरिए हासिल किए गए, डालरों तक उसकी पहुंच को रोकना। अमरीकी डालरों से इस तरह वंचित किए जाने पर, रूस जाहिर है कि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए आयात नहीं कर सकता है। उसे मजबूरन किसी दूसरी ही ऐसी व्यवस्था के जरिए ये आयात हासिल करने पड़ेंगे, जिसमें उसे डालर में भुगतान नहीं करना पड़ेगा। और यहीं द्विपक्षीय व्यापार समझौतों की भूमिका आ जाती है। भारत के भी रूस के साथ ऐसा समझौता करने की संभावना है, जो पहले सोवियत संघ के साथ रहे समझौते की ही याद दिला रहा होगा।
अब यह तो वक्त ही बताएगा कि इस तरह की व्यवस्थाएं, पश्चिमी पाबंदियों की काट करने की रूस की सामथ्र्य को किस हद तक सहारा देंगी। इस मुद्दे पर चर्चा में सामान्य रूप से पश्चिमी पाबंदियों के चलते, आयातित दवाओं के अभाव में, वेनेजुएला तथा ईरान में पाबंदियों के कारण हजारों मौतें होने का उदाहरण दिया जाता है। इस तरह, इन पाबंदियों के खिलाफ इस आधार पर इस प्रकार की मानवतावादी दलील पेश की जाती है कि जब आपत्ति सरकार के कदमों से है, उसके लिए इतने सारे आम लोगों को तकलीफें झेलने के लिए मजबूर कैसे किया जा सकता है और वर्तमान मामले में तो एक ही व्यक्ति, व्लादीमीर पूतिन की हरकतों के लिए आम लोगों को तकलीफें क्यों भुगतनी पड़ें?
साम्राज्यवादी पाबंदियों में छुपा अंतर्विरोध
बहरहाल, एक ओर रूस और दूसरी ओर ईरान या वेनेजुएला को इस सिलसिले में एक ही पलड़े पर नहीं तोला जा सकता है। जैसाकि खुद पूतिन ने रेखांकित किया है, रूस एक विशाल देश है, जो अपनी जरूरत की ज्यादातर चीजें खुद पैदा करने में समर्थ है। इसके अलावा, अपनी जरूरत की जो चीजें वह खुद बना नहीं सकता है, उन्हें भी गैर-पश्चिमी देशों के साथ द्विपक्षीय समझौतों के जरिए, वह आसानी से हासिल कर सकता है। वास्तव में रूस विश्व रंगमंच पर इतना महत्वपूर्ण देश जरूर है कि पश्चिमी विकसित देशों को छोडक़र, अन्य देश उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं और उसकी ओर से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं। संक्षेप में यह कि उसके पास बलशाली अर्थव्यवस्था है और दुनिया भर में उसके काफी दोस्त हैं।
बहरहाल, जहां तक साम्राज्यवाद का सवाल है, इस तरह की पाबंदियां लगाने में एक अंतर्विरोध निहित है, जो गौर करने वाला है। ये पाबंदियां काम करती हैं तो साम्राज्यवाद की ताकत के चलते काम करती हैं। ये पाबंदियां मिसाल के तौर पर इसलिए काम करती हैं कि विश्व व्यापार में लेन-देन मुख्यत: अमरीकी डालरों में या अन्य उससे संबद्घ हॉर्ड करेंसियों में होता है। लेकिन, इस तरह की आर्थिक पाबंदियां लगाए जाने का हरेक प्रकरण, संबंधित देशों को ऐसे वैकल्पिक रास्ते तलाश करने की ओर धकेलने के जरिए, जिनसे इन पाबंदियों को धता बतायी जा सके, साम्राज्यवाद की ताकत को कमजोर करने का ही काम करता है। ये पाबंदियां, जो साम्राज्यवाद की ताकत की ही अभिव्यक्ति होती हैं, अपने थोपे जाने के तथ्य से ही, साम्राज्यवाद की ताकत को ही कमजोर करती हैं।
चूंकि इस तरह की पाबंदियों का निशाना बनने वाले देश, इन पाबंदियों की चोट से बचने के लिए, द्विपक्षीय व्यापार समझौतों जैसी वैकल्पिक व्यवस्थाएं करते हैं, अब जबकि बढ़ती तादाद में देशों को इन पाबंदियों का निशाना बनाया जा रहा है, अनेकानेक ऐसी वैकल्पिक व्यवस्थाएं सामने आ रही हैं। संक्षेप में इस तरह की पाबंदियां थोपे जाने की प्रक्रिया, व्यवहार में तथ्यत: मौजूदा नवउदारवादी निजाम की वैकल्पिक व्यवस्था को ही गढऩे का और इस तरह इन पाबंदियों के प्रभावीपन को कमजोर करने का ही काम करती है। पाबंदियों का प्रभावीपन, वर्तमान व्यवस्था के जारी रहने का तकाजा करता है, लेकिन पाबंदियों के जवाब में जिन विकल्पों की तलाश की जाती है, वे वर्तमान व्यवस्था के जारी रहने को ही नकारते हैं।
साम्राज्यवादी आर्थिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ विद्रोह
यह अंतर्विरोध खुद, एक और बुनियादी अंतर्विरोध से पैदा होता है। वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बनाने वाली आर्थिक व्यवस्था को, दूसरे देशों के सामने एक तार्किक व्यवस्था बनाकर ही चलाने की कोशिश की जाती है। इसके पक्ष में दी जाने वाली दलील, इस व्यवस्था की आर्थिक वांछनीयता पर ही ध्यान केंद्रित करती है। लेकिन, वास्तव में यह व्यवस्था साम्राज्यवाद की ताकत को सहारा देने के लिए ही है और इसका इस्तेमाल ऐेसे देशों के खिलाफ किया जाता है, जो गैर-आर्थिक कारणों से साम्राज्यवाद के कोप को आमंत्रित कर लेते हैं। यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनना चाहिए या नहीं, यह ऐसा सवाल है जो खुद मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की परिभाषा के हिसाब से, आर्थिक व्यवस्था के दायरे से बाहर पड़ता है। जब साम्राज्यवाद, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के संचालन में, ऐसे मुद्दों पर जिनका अपने आप में इस आर्थिक व्यवस्था से कुछ लेना-देना नहीं होता है, इस तरह की पाबंदियां थोपने के जरिए हस्तक्षेप करता है, वह इस अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के पक्ष में दी जाने वाली आर्थिक दलीलों के खोखलेपन को बेनकाब करता है और साम्राज्यवादी व्यवस्था में उसके वास्तविक चरित्र को दिखाता है। नाटो से जुड़े मुद्दों पर या सुरक्षा व विदेश नीति के अन्य प्रश्नों पर, जिनका उनके लिए विशेष महत्व हो, जिन देशों का भी साम्राज्यवाद के साथ टकराव होता है, वे पाते हैं कि मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के अंतर्गत उन्हें, आर्थिक रूप से दबाया जा रहा है। इसके अपरिहार्य परिणाम के रूप में, मौजूदा अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ उनका विद्रोह सामने आता है।
इसलिए, आज हम जो देख रहे हैं, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के अंतर्विरोधों का ही परिणाम है। यह खासतौर पर यही दिखाता है कि नवउदारवाद कैसे बंद गली में फंस गया है। इसी ने मौजूदा परिस्थिति-संयोग को गढ़ा है, जिसकी अभिव्यक्ति एक ओर तो विश्व अर्थव्यवस्था के लंबे संकट में और दूसरी ओर अमरीका के वर्चस्व के लिए उस चुनौती में हो रही है, जो रूस-यूक्रेन टकराव में हमें प्रत्यावर्तित रूप में दिखाई दे रही है।
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