महर्षि वाल्मीकि जयंती के बहाने स्वच्छकार समाज को धर्मांध बनाए रखने की साज़िश!
हमेशा की तरह इस बार भी सफाई समुदाय या स्वच्छकार समाज के लोग महर्षि वाल्मीकि जी की जयंती धूमधाम से मना रहे हैं। सरकार की तरफ से कोरोना प्रोटोकॉल न हो तो झांकियां या शोभायात्राएं भी निकालते। स्वच्छकार समाज के कुछ लोग इसे भगवान वाल्मीकि का प्रकटोत्सव भी कहते हैं। वे इसे पूरी धार्मिक निष्ठा से मनाएंगे। दिन भर तरह-तरह के धार्मिक अनुष्ठान करेंगे। कुछ सवर्ण राजनैतिक हस्तियों को भी आमंत्रित करेंगे। ये राजनैतिक हस्तियां स्वच्छकार समाज को धर्म का रक्षक बताएंगीं। समाज और देश का रक्षक बताएंगीं। साथ में फोटो खिंचवायेंगी और ये समाज ख़ुशी से गदगद हो जाएगा। अयोध्या के राम मंदिर के लिए चंदा इकठ्ठा करके दान देगा। राजनैतिक हस्तियां मौके का पूरा फायदा उठाएंगी। वाल्मीकि मंदिर परिसर में झाड़ू लगा कर इन्हें इम्प्रेस करेंगीं और अपना वोट बैंक सुनिश्चित करेंगीं।
कथनी और करनी के फ़र्क़ को समझने की ज़रूरत
ये समाज कभी नहीं सोचेगा कि ये आमंत्रित अतिथिगण जिन महर्षि वाल्मीकि जी की इतनी प्रशंसा कर रहे हैं, जिनके पदचिह्नों पर चलने का उपदेश दे रहे हैं, उनकी तस्वीर तक अपने घर में नहीं लगाते हैं। जिस स्वच्छकार समाज को हिन्दू समाज का अभिन्न हिस्सा बता रहे हैं वही यहां से जाने के बाद उनसे छूआछूत बरतेंगे। उनसे भेदभाव करेंगे। उन पर अत्याचार करेंगे। इस समाज को उनकी कथनी और करनी के अंतर को समझना चाहिए। वे कभी इस समाज के लिए उच्च शिक्षा और अधिकारों की बात नहीं कहेंगे। वे इस समाज की बेरोजगारी दूर करने की बात नहीं कहेंगे। वे इस समाज में व्याप्त अंधविश्वाश को दूर करने की बात नहीं कहेंगे। वे अपने साथ बराबरी की बात नहीं कहेंगे। वे रोटी-बेटी जैसे रिश्तों की बात नहीं कहेंगे। वे गरिमापूर्ण जीवन जीने की बात नहीं कहेंगे। इनका शोषण करने वाले लोग भला इनके हक़-अधिकारों की बात क्यों कहेंगे। वे तो यही चाहेंगे कि स्वच्छकार समाज इन धार्मिक कर्म-कांडों में उलझा रहे।
स्वच्छकार समाज को यह भूलना नहीं चाहिए कि हाथरस कांड को अंजाम देने वाले और दिल्ली की गुड़िया के साथ हैवानियत करने वाले उसी कथित उच्च जाति के लोग हैं। उसी भेदभावकारी मानसिकता के लोग हैं। स्वच्छकार समाज की भावुकता और धार्मिक भावनाओं का लाभ उठाने वाले यही लोग हैं। ये हिन्दू धर्म की रक्षा के नाम पर इन्हें मुसलमानों से लड़वाते हैं। सांप्रदायिक दंगो की आग में इन्हें झोंक देते हैं। धर्म के नाम पर इस समाज का इस्तेमाल किया जाता रहा है। और हमारा स्वच्छकार समाज इनके षड्यंत्रों का शिकार बनता रहा है।
स्वच्छकारों को अशिक्षित और गरीब बनाए रखने का षड़यंत्र
हिन्दुत्ववादियों का सोचा-समझा षड़यंत्र है कि स्वच्छकार समाज को अशिक्षित और गरीब बनाए रखा जाए। क्योंकि उन्हें लगता है कि हमारी गन्दगी साफ़ करने के लिए इनसे अच्छा और सस्ता श्रमिक हमें नहीं मिल सकता। और कथित उच्च जाति के लोग इस गंदे पेशे को अपनाएंगे नहीं। फिर ये लोग तो सदियों से हमारे गुलाम और सेवक रहे हैं। इनका तो जन्म ही हमारी गन्दगी साफ़ करने के लिए हुआ है। इसलिए इन्हें अशिक्षित और गरीब बनाए रखना जरूरी है। यदि ये लोग पढ़-लिख कर उच्च शिक्षित हो जाते हैं तो ये लोग आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों पर पहुँच जाएंगे और समृद्ध हो जाएंगे। गरिमापूर्ण जीवन जीयेंगे तो फिर ये गंदे काम कौन करेगा? इस सन्दर्भ में कँवल भारती भी अपने एक लेख में कहते हैं –“सवर्ण हिंदुओं को मेहतरों की जरूरत है, शौचालय साफ़ कराने के लिए, सड़कें साफ़ करने के लिए, और नाले और गटर साफ़ कराने के लिए। दुनिया में भारत अकेला देश है, जहां गटर की सफाई, सफाई कर्मचारियों से कराई जाती है, जिस तरह वे उनमें घुसकर सफाई करते हैं, वह जान-लेवा है और अब तक कई सौ लोग गटर में घुसकर मर चुके हैं। अन्य देशों में गटर की सफाई मशीनों से होती है, पर भारत में सफाईकर्मियों से इसलिए यह काम कराया जाता है क्योंकि मशीन महंगी पड़ती है, जबकि सफाईकर्मी बहुत ही सस्ता मजदूर है, जिसकी मौत की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं होती है। इसलिए उच्च हिंदुओं के लिए बहुत जरूरी है मेहतर समुदाय को अशिक्षित और गरीब बने रहना, क्योंकि शिक्षित होकर वे हिन्दू फोल्ड से बाहर निकल सकते हैं।“
धार्मिक आस्था बनाम वैज्ञानिक चेतना
हमारा स्वच्छकार समाज उच्च शिक्षित नहीं है और उसमे चेतना का अभाव होने के कारण वह हिन्दुत्ववादियों और आरएसएस के बहकावे में जल्दी आ जाता है। ये लोग उसे धार्मिक आस्था से जोड़ देते हैं। फिर वह न तर्क करता है और न किसी की तर्कसंगत बात सुनता है। वह अपने आराध्य के विरुद्ध कुछ भी नहीं सुनना चाहता है और इसे धार्मिक आस्था पर ठेस मानकर बताने वाले को ही अपना दुश्मन समझने लगता है।
काल मार्क्स ने इसीलिए धर्म को अफीम कहा था। इसका नशा सचमुच घातक होता है। अभी हाल ही में सिंघु बॉर्डर के किसान आंदोलन के नजदीक एक दलित मजदूर लखबीर सिंह की धार्मिक पुस्तक की बेअदबी के नाम पर पीट-पीट कर नृशंस हत्या कर दी गई। उसका हाथ काट दिया गया। और उसकी लाश को पुलिस के बेरिकेड से बांधकर यह सन्देश देने की कोशिश की गई कि धार्मिक पुस्तक की बेअदबी करने वालों का यही हाल किया जाएगा। ऐसी धार्मिक अंध आस्था से बचने की जरूरत है क्योंकि ये मानवता के खिलाफ हैं।
आज स्वच्छकार समाज को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के तीन मूलमंत्र “शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो” को अपनाने की जरूरत है। इससे वे अपने जीवन में उन्नति करेंगे। राजनीतिक दल तो ऐसे लोगों का वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करना जानते हैं। इसीलिए वे उन्हें धार्मिक अंध आस्था में डुबाये रखना चाहते हैं। उनमे वैज्ञानिक चेतना का प्रसार होने देना नहीं चाहते। यही कारण है कि जब वाल्मीकि जयंती का भव्य आयोजन करने वाले सोनिया गांधी या किसी बड़े राजनेता को उद्घाटन करने के लिए बुलाते हैं। वे वाल्मीकि जयन्ती का उद्घाटन कर चन्द औपचारिक शब्द कह देते हैं जैसे “हमें महर्षि वाल्मीकि के बताए धार्मिक आदर्शों पर चलना चाहिए।...” अगले दिन अखबार में उक्त राजनेता के साथ प्रिंट मीडिया में आयोजकों की तस्वीर और खबर छप जाए या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे टी.वी. में कुछ फुटेज मिल जाए तो स्वच्छकार समाज खुश हो जाता है। और राजनेता भी यही चाहते हैं कि ये समाज इसी तरह धार्मिक आस्था में डूबा रहे या धर्म की इसी अफीम के नशे में बेसुध रहे। उसमें चेतना न आए।
इस बारे में कँवल भारती जी सही कहते हैं कि –“हमारे वाल्मीकि समुदाय के लोगों को, खासतौर से शिक्षित लोगों के लिए यह आत्ममंथन करने का समय है। क्या रामायण का पाठ उनकी जरूरत है? क्या रामायण का पाठ सुनने से उनकी सामाजिक और आर्थिक समस्याएं हल हो जाएँगी? वे कब तक अपनी समस्याओं को नजरंदाज करते रहेंगे? क्या वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सफाई मजदूर बनकर रहना चाहते हैं? अगर नहीं तो आत्मचिंतन करें कि उन्हें अपने बेहतर भविष्य के लिए क्या चाहिए -झाड़ू या शिक्षा? अगर वे अपना और अपनी भावी पीढ़ियों का बेहतर भविष्य बनाना चाहते हैं, तो झाड़ू का त्याग करें और शिक्षा को अपनाएं।“
जब स्वच्छकार समाज के लोग शिक्षित होंगे, वैज्ञानिक चेतना से लैस होंगे, फिर कोई उन्हें बेवकूफ नहीं बना पायेगा। इसके लिए हमें अपने अंतर्मन के अंदर भावुक होकर नहीं बल्कि तार्किक होकर झांकना होगा। तर्कपूर्ण ढंग से सोचकर अपनी पारंपरिक सोच को बदलना होगा।
क्या हमारा स्वच्छकार समाज इस तरह का आत्ममंथन और आत्मचिंतन करने के लिए तैयार है?
(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)
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