कैसे न तोड़ पाए जेल आपको : शरजील इमाम
अधिवक्ता अहमद इब्राहिम कुछेक हफ्तों से अपने मुवक्किल शरजील इमाम की भलाई को लेकर परेशान चल रहे थे। शरजील, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं और गत साल दिल्ली में फरवरी में हुई साम्प्रदायिक हिंसा की साजिश रचने , उसे फैलाने और देशद्रोह के आरोप में फिलहाल तिहाड़ जेल में कैद है। इब्राहिम ने सोचा कि हरेक “लीगल इंटरव्यू”, में शरजील की फिक्र का पहाड़ और ऊंचा होता मालूम पड़ रहा है। वकीलों को जेल में बंद अपने मुवक्किल से मुकदमों के सिलसिले में मुलाकात करने और उनसे गुफ्तगू करने का कानूनी हक मिला हुआ है। इब्राहिम और शरजील को हफ्ते में दो बार 30 मिनट तक मुलाकात की इजाजत दी गई है।
इन मुलाकातों में, इब्राहिम को शरजील मुकम्मल तौर पर बेचैन और बेसब्र लगता है, गोया वह समय को तेजी से आगे खींचते हुए तिहाड़ जेल से रिहा होकर आजाद हवा में सांस लेने के लिए बेताब है। वह लगातार इब्राहिम से पूछता कि उन्होंने उसकी जमानत की अर्जी क्यों नहीं लगाई। इब्राहिम पिछली कई मुलकातों में को दोहराये गए अल्फाजों को दोहरा देते कि “अदालत में जमानत अर्जी डालने के लिए हालात का मुफीद होनाजरूरी है। इसमें कानूनी बारीकियां जुड़ी हुई हैं।”
शरजील के नाम तीन प्राथमिकियों में दर्ज होने के बिना पर उसके खिलाफ तीन आरोप पत्र दायर किये गये हैं, जिसमें उस पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 16 जनवरी 2020 को वतन के खिलाफ तकरीर देने; दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में 2019 के दिसम्बर में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान भड़की हिंसा में उसके रोल; और फरवरी में, दिल्ली में अन्य 16 लोगों के साथ मिलकर दंगे की साजिश रचने तथा सीएए वापस लेने के लिए केंद्र सरकार को आतंकित करने के आरोप हैं, जिसके चलते पुलिस ने उसे गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया हुआ है। जब तक कि ये तीनों मामले सुनवाई की दहलीज पर नहीं पहुंच जाते, अदालत इस आधार पर उसे जमानत देने से शायद इनकार कर सकती है कि पुलिस की तफ्तीश का काम अभी पूरा नहीं हुआ है।
अदालती प्रक्रिया पर इब्राहिम के साथ लंबी गुफ्तगू करने के अंत में, हर बार, वह उन मुकदमों की नाहक ही चर्चा करने लगता, जिसमें उसे नामजद किया गया है। “देशद्रोह का आरोप तो कमजोर है”, विचाराधीन कैदी गोया खुद से गुफ्तगू में कहता। आखिरकार, उसने असम को शेष भारत से काट देने के लिए किये गये चक्का जाम के बारे में कहता, “इसे उसने नहीं आयोजित किया था।” वह सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का हवाला देता, जिसमें कहा गया था कि केवल तकरीर को वतनखिलाफी का सबूत नहीं माना जा सकता अगर इसकी वजह से हिंसा न भड़की हो। शरजील इस बारे में न्यायाधीशों को खत लिख कर अपनी बात रखने का प्रस्ताव रखता। इन सभी मौकों पर इब्राहिम का जवाब होता: “यह अदालत के काम करने का तरीका नहीं है।”
जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंसा भड़काने का मामला शरजील को परेशान नहीं करता है, क्योंकि वह जानता है कि इस मामले में पकड़े गए सभी अभियुक्तों को जमानत मिल चुकी है। नहीं उसे, फरवरी में दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा की साजिश रचने का आरोप परेशान करता है। शरजील को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में वतन के खिलाफ स्पीच देने के मामले में 28 जनवरी 2020 को पुलिस हिरासत में ले लिया गया था। 7 फरवरी को उसे तिहाड़ जेल भेज दिया गया था। उसकी गिरफ्तारी के 26 दिन बाद दिल्ली में सांप्रदायिक दंगा हुआ था। “ मेरे लिए जेल के भीतर से दंगे की साजिश करना मुमकिन नहीं था, क्या मैं ऐसा कर सकता था?” शरजील इब्राहिम से ऐसे कहता, “जैसे कि वह जज के सामने अपनी बेगुनाही की दलील दे रहा हो।”
शरजील की अपने मुकदमों की तफीसीली कैफियत मानो एक बेकरार आदमी का खुद से गुफ्तगू हो। अंत में इब्राहिम दखल देते : “लेकिन यह हुकूमत की कहानी नहीं है।” चार्जशीट में कहा गया है कि शरजील ने सीएए के लिए किए जा रहे खिलाफत के दौरान बैरिकेट्स पर अन्यों के साथ मिलकर दिल्ली दंगे की साजिश रची थी, जब वह एक आजाद नागरिक था। फिर भी शरजील कहता, “अभियोग पक्ष के पास उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है क्योंकि वह हिंसा में शामिल नहीं था।”
अब इसे एक बेगुनाह का अपनी बेगुनाही पर पुख्ता भरोसा कहें या देश के इंसाफ की व्यवस्था में उसका स्थायी विश्वास। यह उसमें श्रद्धायुक्त-भय देता है- यद्यपि वह वास्तविक मालूम नहीं पड़ता है, बड़े मायने में इसलिए कि, इब्राहिम की नजर में, शरजील अदालतों के काम करने के तरीके से बेखबर है: किसी व्यक्ति को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद ही बरी किया जा सकता है या गुनहगार ठहराया जा सकता है; इस बीच उसकी, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, उसकी मासूमियत के इकरार कोई मायने नहीं रखते। एक ऐसा आदमी, जो सदा के लिए किसी चीज में विश्वास या अविश्वास करता है, मानो वह दूसरों से अलग की दुनिया या वास्तविकता में रह रहा है।
शरजील की जुबानी बहस इब्राहिम को उसके लिए तत्काल एक मनोचिकित्सक का किरदार निभाने के लिए भी फिक्रमंद कर देती है। पिछली बातचीत के दौरान इब्राहिम ने शरजील से उसकी मानसिक दशा के बारे में पूछा था। उसने बताया कि वह अपने आसपास की बदलती असलियत के साथ तालमेल बिठाने की लगातार कोशिश कर रहा हैI पहले उसे पुलिस द्वारा, अदालत में, आतंकवादी के रूप में व्यवहार किए जाने पर गहरा सदमा लगा था। और गुवाहाटी के सफर में, जहां एफआईआरदर्ज होने की वजह से उसे ले जाया गया था। उसे गुवाहाटी के सेंट्रल जेल में रखा गया था, जहां उसे अपनी जमानत तक रहना था। इसे लेकर शरजील ने इब्राहिम से कहा, “मैं तिहाड़ के बजाय गुवाहाटी की सेंट्रल जेल को पसंद करता हूं।” क्यों?
“गुवाहाटी जेल में हिंसा की कोई जगह नहीं थी, न ही यहां मुसलमान को लेकर कोई विरोध था,” शरजील ने कहा। शरजील के आतंकवाद मामले में गिरफ्तारी के बारे में जानकर जब वहां सबकी जिज्ञासाएं शांत हो गईं तो फिर वह अन्य कैदियों के बीच घुलमिल गया। उनमें से कई लोगों को असम में सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने के मामले में कैद किया गया था। उनमें ज्यादातर जवान और पढ़े-लिखे थे। वह उनके साथ बातचीत कर सकता था और वह जेल की लाइब्रेरी में घंटों समय बिताता था। गुवाहाटी सेंट्रल जेल के कैदियों ने जून में अपने 8 सूत्री एजेंडे को लेकर 2 दिनों की भूख हड़ताल भी की थी। उनकी अन्य मांगों में अखिल गोगोई की रिहाई भी शामिल थी। गोगोई कृषक मुक्ति संग्राम समिति, के संस्थापक हैं, जो सरजमीनी स्तर पर काम करती है।
शरजील ने बताया कि “गोगोई को तो रिहा नहीं किया गया, लेकिन उस भूख हड़ताल से एक बात पुख्ता हो गई कि जम्हूरियत के तरीके से मसले का हल निकलने की पूरी गुंजाइश है, यहां तक कि जेल में भी।” हालांकि भूख हड़ताल की कुछ हफ्तों बाद ही शरजील कोविड-19 से संक्रमित हो गया था। इससे उसे जेल में ही मर जाने का खौफ सताने लगा था। शरजील ने इब्राहिम से कहा, “मुझे यह खौफ नहीं था कि मैं परिवार से मिले बिना मर जाऊंगा। बजाय इसके कि मैं यह साबित किए बिना ही मर जाऊंगा कि मैं आतंकवादी नहीं हूं।” इसके महीने भर बाद शरजील की रिपोर्ट नेगेटिव आई और उसे दिल्ली ले आया गया, जहां दायर आरोप पत्र में अन्यों के साथ उसे भी अभियुक्त ठहराया गया था।
“तिहाड़ एक दुखद सपना है”, शरजील ने इब्राहिम से बातचीत में यह माना। शायद उसका वह ख्याल तिहाड़ में पहले अनुभवों की वजह से हो। यहां उसे गुवाहाटी ले जाने के पहले कैद कर रखा गया था। उन दिनों दूसरों को उसके बारे में ऐसा लगता था जैसे भारत को भूलने का नाटक कर रहा है। विडंबना यह कि यह उन लोगों को लगता था जो खुद हैवानियत के जुर्म में जेल में थे। 13 फरवरी को कैदियों के एक जत्था उससे टोकाटाकी करने लगा, आतंकवादी और अराजकतावादी कह दिया। एक कैदी ने तो जेल अधिकारी की मौजूदगी में उसके कॉलर पकड़ लिए थे। अधिकारी ने ही तब बीच-बचाव किया। यही घटना शायद वह वजह है, जिसके लिए शरजील अपने को अधिकतर समय सेल में ही बंद रखता है, जहां से वह सुबह और शाम में 1 घंटे के लिए ही बाहर आता है।
शरजील को भावनात्मक रूप से प्रोत्साहित करके उसके दिमाग के काम करने के ढंग की थाह लेने मकसद से इब्राहिम ने पूछा कि क्या कोई तकनीक है, जिसमें कोई जेल किसी शख्स को जेहनी तौर पर न तोडं पाये। उन दोनों की बातचीत ने इब्राहिम को यह समझदारी दी कि क्यों शरजील बेसब्री से अपनी जमानत अर्जी के बारे में पूछता रहता है। जेल में जिंदगी के नए मायने बनाने वक्त लगता है। जेल के बाहर बहुत लोगों के लिए जब वे सुबह जगते हैं, तब उनका समय शुरू हो जाता है। एक विचाराधीन कैदी के लिए वक्त का गुजरना निलंबित हो जाता है। वक्त ठहर जाता है। हर रोज एक खालीपन लगता है। शरजील अपनी जमानत के लिए इसलिए बेसब्र हो रहा है क्योंकि उसे इसका ख्याल है कि उसका वक्त तभी शुरू होगा, जब वह आम जिंदगी में लौटेगा, जिस जिंदगी को वह 28 जनवरी को अपनी गिरफ्तारी से पहले जानता था। शुरुआत में उसने सोचा था कि वह कुछ ही हफ्तों में जेल की कैद से आजाद हो जाएगा। लेकिन कुछ महीने बाद उसने अपने वक्त को फिर से व्यवस्थित किया और इंतजार किया। वह इसके लिए पूछता रहा है, अब उसने खुद को समझा लिया है कि 6 महीने अभी और कैद में रहना होगा।
उसकी नींद चौकन्नी है। यहां तक कि जब वह वक्त के दुबारा शुरू होने का इंतजार करता है, पढ़ लेता है। उसके लिए हरुकी मुराकामी की किताब मेन विदाउट वूमेन नहीं है, न ही फ्रैंक काफ्का की दी ट्रायल और न तो उसकी पीएचडी की थीसिस से जुड़ी कोई किताब दी जाती है। उसे हल्की- फुल्की कहानी के दर्जे में आने वाले उपन्यासों को पढ़ने की इजाजत है। इन किताबों में शायद जॉन ग्रीश्म की लिखी हुई भी है। और वह, जाहिर तौर पर “देशद्रोही तकरीरों” को देने की आरोप वाले चार्जशीट पर अंगूठा लगा सकता है कि उसने कई बार ऐसी तकरीर दी है।
शरजील ने इब्राहिम से कहा कि वह हमेशा से चाहता था कि मुसलमानों को हाशिए पर धकेले जाने और हुकूमत के भेदभाव के बारे में उन्हें अवगत कराएं। उसकी गिरफ्तारी ने बहुत सारे लोगों को उसकी तकरीर सुनने के लिए और उसके लिखे हुए को पढ़ने के लिए पहले की बनिस्बत ज्यादा ख्वाहिशमंद कर दिया है, जिसके बारे में वह इसके पहले नहीं सोच सकता था। “क्या यह नुकसान का हर्जाना है”? वह किसानों के प्रदर्शन को एक मॉडल मानता है, जिसकी तर्ज पर पूरे देश में सीएए खिलाफ धरना दिया जा सकता है। वह इब्राहिम से कहता है, “काश मैं वहां होता, उनके सबके साथ।”
जेल में एक आदमी को बिना उसकी मर्जी के भिन्न सामाजिक परिवेश में रख दिया जाता है। इस मामले मेें गुवाहाटी सेंट्रल जेल का बैरक उसके लिए लकी था।तिहाड़ में ऐसा नहीं है, यहां उसके आजू-बाजू सजायाफ्ता कैदी हैं तो कुछ कैदी हाईकोर्ट में अपने मामले की सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं, उनमें कुछ अच्छे भी हैं, जो अपना वक्त चारदीवारी के पीछे गुजारते हैं। उन्हें अपनी उस जिंदगी में लौटने की उम्मीद नहीं है, जिसे वे जानते थे। शरजील का अकेलापन एक सवाल खड़ा करता है: क्या वह इंसानों की संगति पाने के अपने परिवेश में दाखिल होता है? या, वह यह तय करने से अलग-थलग रहता है कि वह इसका भरोसा नहीं करता कि उसकी जिंदगी भी उनके जैसी हो जाएगी-एक ऐसे जाल में फंस कर रह जाएगी, जहां से भागने की गुंजाइश नहीं है।
वक्त और सामाजिक असलियतों के बारे में आम ख्यालात से बाहर शरजील का ध्रुवतारा एक ही है, अपनी बेगुनाही में पुख्ता भरोसा। इस उम्मीद के साथ कि आजादी की झंकार एक बार फिर सुनी जाएगी। और वह वक्त शुरू होगा, या तो अभी या महीनों बाद। तब तक, हंसी-मजाक से चौकन्नी नींद को सहनीय बनाया जाएगा। जब इब्राहिम ने शरजील को उसके एक दोस्त की शादी हाे जाने के बारे में बताया, तो उसने चुटकी ली, “शादी की उम्र मेरी भी हो गई है। मुझे जेल से बाहर निकालिए।”
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
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