सर जोड़ के बैठो कोई तदबीर निकालो
ग़ज़ल (1)
सर जोड़ के बैठो कोई तदबीर निकालो।
हर बात पे ये मत कहो शमशीर निकालो।
हालात पे रोने से फ़क़त कुछ नहीं होगा,
हालात बदल जाएँ वो तदबीर निकालो।
देखूँ ज़रा कैसा था मैं बेलौस था जब तक,
बचपन की मेरे कोई सी तस्वीर निकालो।
सय्याद को सरकार सज़ा बाद में देना,
पहले मेरे सीने में धँसा तीर निकालो।
दुनिया मुझे हैवान समझने लगी, अब तो,
गर्दन से मेरी धर्म की ज़ंजीर निकालो।
ग़ज़ल (2)
ये सब ग़रीबों के दायरे हैं, फ़लां की मिल्लत, फ़लां का मज़हब।
अमीर सारे हैं एक जैसे, कहां की मिल्लत, कहां का मज़हब।
नमाज़, पूजा तो ज़ाहिरी हैं, अयां करेंगे अयां का मज़हब
कभी मुख़ातिब ख़ुलूस हो तो, बयां करेगा निहां का मज़हब
वो रोशनी हो कि तीरगी हो, जमाल हो या जलाल उसका
ज़मी पे सबकुछ निसार कर दे, यही तो है आस्मां का मज़हब
किसी पे दाढ़ी उगा रहे हैं, किसी पे चोटी लगा रहे हैं
वो गढ़ रहे हैं तवारीख़ के हर इक पुराने निशां का मज़हब
जो इससे बोले ये उसकी मां सी, जो इसको बरते उसी की मां है
यही है उर्दू की पासदारी, यही है उर्दू ज़बां का मज़हब
कोई ये कैसे यक़ीन कर ले कि दीन दुनिया से मुख़्तलिफ़ है
नदीम सूरज ने आंख फेरी, बदल गया सायबां का मज़हब
- ओमप्रकाश नदीम
(कवि-संस्कृतिकर्मी, लखनऊ)
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