लिव-इन से जन्मा बच्चा भी पैतृक संपत्ति का हिस्सेदार, क्या है सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मायने?
सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशन से जन्मे बच्चे को लेकर एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि लंबे समय तक बगैर शादी के साथ रहे जोड़े से पैदा अवैध संतान को भी परिवार की संपत्ति में हिस्सा मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस विक्रम नाथ की बेंच के मुताबिक अगर पुरुष और महिला सालों तक पति-पत्नी की तरह साथ रहते हैं, तो मान लिया जाता है कि दोनों में शादी हुई होगी और इस आधार पर उनके बच्चों का पैतृक संपत्ति पर भी हक रहेगा। जाहिर है हिंदुओं में संपत्ति के बंटवारे को लेकर सामने आया ये महत्वपूर्ण फैसला लिव-इन जोड़े से पैदा बच्चे में विश्वास को स्थापित करता है।
बता दें कि पहले ये मामला केरल की एक निचली अदालत में पहुँचा था। इसके बाद ये मामला पहले केरल हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे के हक़ में फ़ैसला सुनाते हुए केरल हाई कोर्ट के उस फ़ैसले को दरकिनार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि बगैर शादी के साथ रहे जोड़े की संतान को परिवार की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिल सकता। इससे पहले ट्रायल ने पैतृक संपत्ति में बंटवारा करने और इसका उचित हिस्सा इस जोड़े से पैदा बच्चे को देने को कहा था।
क्या है पूरा मामला?
प्राप्त जानकारी के मुताबिक ये मामला केरल का था। इस मामले में याचिकाकर्ता, कट्टुकंडी इडाथी कृष्णन और दूसरे लोग वादी थे जबकि कट्टुकंडी इडाथी करुणाकरन प्रतिवादी। इनकी मौत मुक़दमे के लंबित रहने के दौरान ही हो गई थी। लिहाजा उनके क़ानूनी वारिसों को केस में प्रतिवादियों के तौर पर रिकार्ड पर लाया गया। वादियों का कहना था जिस संपत्ति के लिए मुक़दमा चल रहा था वह कट्टूकंडी इडाथिल कनरन वैद्यर की थी। उनके चार बेटे थे- दामोदरन, अच्युतन, शेखरन और नारायणन।
याचिकाकर्ता का कहना था कि वो दामोदरन का बेटा है, वहीं प्रतिवादी करुणाकरन का कहना था कि वो अच्युतन का बेटा है। शेशेखरन और नारायण की अविवाहित रहते हुए ही मौत हो गई थी। करुणाकरन का कहना था कि वही सिर्फ अच्युतन की इकलौती संतान है, बाकी तीनों भाई अविवाहित थे। उसका आरोप था कि याचिकाकर्ता की मां ने दामोदरन से शादी नहीं की थी। इसलिए वो वैध संतान नहीं हैं, लिहाजा उसे संपत्ति में हक नहीं मिल सकता।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार संपत्ति को लेकर विवाद ट्रायल कोर्ट गया। कोर्ट ने माना कि दामोदरन लंबे समय तक चिरुथाकुट्टी के साथ रहा, इसलिए माना जा सकता है कि दोनों ने शादी की थी। ट्रायल कोर्ट ने संपत्ति को दो हिस्सों में बांटने का आदेश दे दिया।
बाद में मामला केरल हाईकोर्ट पहुंचा। जहां कोर्ट ने कहा कि दामोदरन और चिरुथाकुट्टी के लंबे समय तक साथ रहने के सबूत नहीं हैं और दस्तावेजों दस्तावेजों से साबित होता है कि वादी दामोदरन का बेटा जरूर है, लेकिन वैध संतान नहीं है। इसके बाद हाई कोर्ट ने इस फ़ैसले को मामले पर दोबारा विचार करने के लिए वापस ट्रायल कोर्ट में भेज दिया था। लेकिन याचिका दायर करने वालों ने सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी थी।
लिव-इन से जन्मा बच्चा पैतृक संपत्ति का हिस्सेदार
ये पूरा मामला जब सुप्रीम कोर्ट गया तो अदालत ने माना कि इस बात के सबूत हैं कि दामोदरन और चिरुथाकुट्टी लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में रह रहे थे। जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस विक्रम नाथ की बेंच ने कहा, "अगर एक पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी के रूप में साथ रह रहे हों, तो माना जा सकता है कि दोनों में शादी हुई थी। ऐसा अनुमान एविडेंस एक्ट की धारा 114 के तहत लगाया जा सकता है।”
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, ''हमने प्रतिवादियों के सबूतों का अध्ययन किया है। हमारा विचार है कि दामोदरन और चिरुथाकुट्टी साथ रहे हैं। ऐसे में प्रतिवादी ये साबित करने में असफल रहे हैं कि दोनों में शादी नहीं हुई है।'' सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस फ़ैसले को बरकरार रखा, जिसने पैतृक संपत्ति में बँटवारा करने और इसका उचित हिस्सा इस जोड़े से पैदा बच्चे को देने को कहा था।
मालूम हो कि इस तरह का एक बहुचर्चित मामला उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी का भी सामने आया था। तब कांग्रेस नेत्री उज्ज्वला शर्मा ने दावा किया था कि उनका और नारायण दत्त तिवारी का रिश्ता रहा था, जिससे एक बेटा रोहित शेखर हुआ है। उन्होंने तिवारी की संपत्ति में रोहित का हक मांगा था। नारायण दत्त तिवारी ने कोर्ट में रिश्ते से इनकार किया था। लंबे समय तक चले मुकदमे के बाद सुप्रीम कोर्ट ने डीएनए टेस्ट कराने का आदेश दिया था। इस टेस्ट से साबित हुआ था कि रोहित शेखर ही नारायण दत्त तिवारी के बेटे हैं। कोर्ट के ऑर्डर के बाद नारायण दत्त तिवारी ने रोहित और उज्ज्वला को अपना लिया था।
लिव-इन में रहना नहीं है कोई अपराध
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने साल 2006 के एक केस में फैसला देते हुए कहा था कि वयस्क होने के बाद व्यक्ति किसी के साथ रहने या शादी करने के लिए आज़ाद है। इस फैसले के साथ लिव-इन रिलेशनशिप को देश में कानूनी मान्यता मिल गई थी। अदालत ने कहा था कि कुछ लोगों की नज़र में 'अनैतिक' माने जाने के बावजूद ऐसे रिश्ते में रहना कोई 'अपराध नहीं है।' आगे सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी फैसले का हवाला साल 2010 में अभिनेत्री खुशबू के 'प्री-मैरिटल सेक्स' और 'लिव-इन रिलेशनशिप' के संदर्भ और समर्थन में दिए बयान के मामले में दिया था। कोर्ट ने पुरुषों के साथ रह रही महिलाओं और उनके बच्चों को कानूनी संरक्षण देने का रास्ता निकाले जाने की पहल भी की थी। इसके बावजूद भी लिव-इन रिलेशनशिप, यानी शादी किए बगैर लंबे समय तक एक घर में साथ रहने पर बार-बार सवाल उठते रहे हैं।
किसी की नज़र में ये मूलभूत अधिकारों और निजी ज़िंदगी का मामला है, तो कुछ इसे सामाजिक और नैतिक मूल्यों के पैमाने पर तौलते हैं। साल 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता दी थी। साथ ही घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 2 (एफ) में भी लिव इन रिलेशन को जोड़ा था। यानी लिव इन में रह रही महिला भी घरेलू हिंसा की रिपोर्ट दर्ज करा सकती है। लिव इन रिलेशन के लिए एक कपल को पति-पत्नी की तरह एक साथ रहना होगा, लेकिन इसके लिए कोई टाइम लिमिट नहीं है।
अदालतों के अलग-अलग फैसले
पिछले साल 2021 के ही अगस्त में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पुलिस सुरक्षा की एक याचिका बर्खास्त कर दी थी और 5,000 रुपए जुर्माना लगाते हुए कहा था कि ऐसे ग़ैर-क़ानूनी रिश्तों के लिए पुलिस सुरक्षा देकर हम इन्हें इनडायरेक्टली (अप्रत्यक्ष रूप में) मान्यता नहीं देना चाहेंगे।
इसके फौरन बाद आए राजस्थान हाई कोर्ट के एक फैसले में भी ऐसे रिश्ते को "देश के सामाजिक ताने-बाने के ख़िलाफ़" बताया गया। इसके बाद सितंबर में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के सामने एक अविवाहित महिला और एक शादीशुदा मर्द ने उनकी पत्नी और परिवार से पुलिस सुरक्षा की याचिका दाखिल की।
हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के 'अडल्ट्री' को रद्द करने वाले फैसले का हवाला देते हुए याचिकाकर्ताओं के हक में फैसला दिया और पुलिस को सुरक्षा मुहैया करने की हिदायत दी। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था, "शादीशुदा होने के बावजूद लिव-इन रिलेशनशिप में रहना कोई गुनाह नहीं है और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि शादीशुदा व्यक्ति ने तलाक की कार्रवाई शुरू की है या नहीं।"
ध्यान रहे कि साल 2006 में भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत 'अडल्ट्री' यानी व्याभिचार ग़ैर-क़ानूनी था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत मिली आज़ादी उन मामलों पर लागू नहीं थी जो शादी के बाहर संबंध यानी अडल्ट्री की श्रेणी में आते थे। शादीशुदा व्यक्ति और अविवाहित व्यक्ति के बीच, या फिर दो शादीशुदा लोगों के बीच लिव-इन रिलेशनशिप कानून की नज़र में मान्य नहीं था। साल 2018 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 'अडल्ट्री' क़ानून को ही रद्द कर दिया था।
बीते साल 2021 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे दो व्यस्क जोड़ों की पुलिस सुरक्षा की मांग को जायज़ ठहराते हुए कहा है कि ये "संविधान के आर्टिकल 21 के तहत दिए राइट टू लाइफ़" की श्रेणी में आता है। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में साफ़ किया था कि लिव-इन रिलेशनशिप को पर्सनल ऑटोनोमी (व्यक्तिगत स्वायत्तता) के चश्मे से देखने की ज़रूरत है, ना कि सामाजिक नैतिकता की धारणाओं से। वैसे तो भारत की संसद ने लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई कानून तो नहीं बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसे रिश्तों के क़ानूनी दर्जे को साफ़ जरूर किया है।
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