भारत में हर दिन क्यों बढ़ रही हैं ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाएं, इसके पीछे क्या है कारण?
आज़ादी के कितने बरस बीत गए, हिंदुस्तान ने न जाने कितने युद्ध, कितनी लड़ाइयां कितने दंगे देख लिए, घातक से घातक बीमारियों को हमारे काबिल डॉक्टरों के आगे घुटने टेकने पड़े, शिक्षा के लिए नए-नए आयाम स्थापित हुए, शोध में भी हिन्दुस्तान किसी से पीछे नहीं है, इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद अगर कोई चीज़ हमें अब तक घेरे हुए हैं, तो वो हैं नस्लभेदी नफरत, हिन्दू को मुसलमान से नफरत, गोरे को काले से नफरत, अमीर को ग़रीब से नफरत.. लेकिन यकीन मानिए कोई मां के पेट से ये नफरत भरी सोच लेकर नहीं आता, इंसान जैसे-जैसे बड़ा होता है, राजनीतिक विचारधाराओं का एक मूक मोहरा बनता चला जाता है, और एक वक्त ऐसा आता है जब वो अपनी सोचने-समझने की क्षमता में शून्य हो जाता है। और फिर वो मरने मारने पर उतारू हो जाता है। इन मोहरों का एक गिरोह तैयार होता है और वो मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं को अंजाम दे बैठता है।
पिछले कुछ वक्त में हुईं हिंसक भीड़ द्वारा मौतों के कारण पर अगर ग़ौर करें तो ये इंसानी प्रवृत्ति से बेहद भिन्न नज़र आती हैं, जैसे झारखंड की बात करें तो एक शख्स को इसलिए मौत के घाट उतार दिया जाता है क्योंकि उसका नाम जाबिर अंसारी था। बबलू शाह और उचित कुमार यादव को भीड़ ने इसलिए पीट-पीट कर मार डाला क्योंकि दोनों पर बकरी चोरी का आरोप लगा था। उत्तर प्रदेश के दादरी में 52 साल के मोहम्मद अख़लाक़ की भीड़ ने पीट-पीट कर बेरहमी से सिर्फ इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उनपर बीफ खाने का शक था... सिर्फ़ शक
अब आप खुद गौर कीजिए, ये जो हिंसक भीड़ है इसकी मानसिकता क्या होगी, इस भीड़ में मौजूद लोगों के दिमाग में क्या चलता होगा, ज़ाहिर उनके सर पर खून सवार होगा, इन्हें कोई चीख़ नहीं सुनाई देती होगी। वारदात को अंजाम देते वक्त इन्हें ये नहीं पता होगा कि कुछ ही मिनटों में ये हत्यारे बन जाएंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इन लोगों के भीतर ये क्रूरता आती कहां से है, ये कैसे अपना आपा इतना ज्यादा खो बैठते हैं कि किसी को मार देने से पहले एक बार भी नहीं सोचते।
वैसे इन बातों का जवाब ढूंढने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, आप टीवी खोलिए, किसी न्यूज़ चैनल की डिबेट चालू करिए, आप को साफ नज़र आएगा कि कैसे लोगों को हत्या करने, एक दूसरे से नफरत करने, चीखने-चिल्लाने की शिक्षा घोल कर पिलाने की कोशिश की जा रही है। दूसरी ओर ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से हिंसक भीड़ की क्रूरता में ज़बरदस्त इज़ाफा हुआ है, इनकी शह पर पल रहे विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, हिन्दू युवा वाहिनी समेत तमाम हिन्दुत्व वादी संगठनों ने धर्म की रक्षा के नाम पर जिस तरह से आतंक फैलाया है, वो किसी से छुपा नहीं है। इन लोगों की उपद्रवी कार्यशैली को देखकर ही बच्चे, नौजवान और एक बड़ा समूह खुद को कथित तौर पर धर्म का ठेकेदार समझने लगा है, जबकि इन्हें ये पता नहीं कि किसी का भी धर्म किसी भी इंसान, समूह या उसकी सोच के दायरे से कितना बड़ा होता है, लेकिन फिर भी इन लोगों की नासमझी ना जाने कितने लोगों की जान ले जाती है।
क्योंकि हम बात हिंसक भीड़ द्वारा हत्याओं की कर रहे हैं इसलिए ज़रूरी है कि कुछ ऐसी मौतों पर नज़र डाली जाए जो वारदात के बाद बेहद चर्चा में रहीं।
20 सितंबर 2015- उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर के दादरी में 52 साल के अख़लाक़ को बीफ खाने के शक में भीड़ ने ईंट और डंडों से पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया।
27 अगस्त 2019- मेरठ में भीड़ ने बच्चा चोरी की अफवाह में एक आदमी की पिटाई करी, पुलिस ने मामला दर्ज कर आठ लोगों को गिरफ्तार भी किया था, इसके अलावा करीब 50 लोगों पर मुकदमा दर्ज किया गया था।
26 अगस्त 2019- गाजियाबाद में अपने पोते के साथ शॉपिंग करने आई एक महिला को बच्चा चोर बताकर उसे पीट दिया गया, महिला से कुछ भी पूछे बगैर उसे जमकर पीटा गया था।
7 जून 2019- जमना टाटी और अजय टाटी दो युवकों को असम में हिंसक भीड़ ने मार डाला।
1 अप्रैल 2017- हरियाणा के नूंह में रहने वाले पहलू खान अपने परिवार के साथ राजस्थान के अलवर से गाय खरीद कर लौट रहे थे, उन्हें गौ-तस्करी के शक में मौत के घाट उतार दिया गया। जबकि वो दूध के लिए गाय खरीद कर ला रहे थे।
22 जून 2017- डीसीपी मोहम्मद अयूब पंडित को जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला और शव को नाले में फेंक दिया था।, आरोप सिर्फ इतना था कि अयूब पंडित मंदिर के बाहर फोटो खींच रहे थे।
3 दिसंबर 2018- अपनी ड्यूटी निभा रहे उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को भी कथित गौकशी को लेकर भड़की भीड़ ने मार डाला।
ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिसको लेकर देश के हर राज्य में सियासत गर्माई, सालों साल इसके बार में बहस हुई, लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि मारे गए एक भी शख्स का कृत्य ऐसा नहीं है, जिसे मौत की सज़ा दे दी जाए। इसके अलावा धर्म के ठेकेदारों को ये गौर करना चाहिए कि अगर मुसलमानों की लिंचिंग हो रही है, तो हिन्दू भी मारे जा रहे हैं, यहां तक पुलिसवालों को भी बख्शा नहीं जा रहा है। कहने का अर्थ सीधा सा ये है कि मारने वाले सिर्फ मोहरे हैं, जो शक के बिनाह पर बिना कुछ सोचे-समझे हत्या कर बैठते हैं, जबकि इन्हें उकसाने वाले असली गुनाहगार, भगवा चोला ओढ़कर, या फिर सफेद पोशाक में खुद को पाक-साफ साबित करने में लगे रहते हैं। उन पर एक आंच तक नहीं आती।
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के आंकड़े बताते हैं कि, जनवरी 2010 से जून 2017 तक गोहत्या और बीफ के मामलों को लेकर राज्यों में हिंसा की 63 घटनाएं हुईं, इन मामलों में कुल 28 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया जबकि 124 लोग घायल हो गए। मॉब लिंचिंग की 51 फीसदी घटनाओं में मुसलमानों को भीड़ की हिंसा का सामना करना पड़ा, यानी सात साल के भीतर मारे गए 24 लोग मुस्लिम धर्म के थे।
न्यूज़ 18 के मुताबिक मॉब लिंचिंग के मामले में गुजरात और राजस्थान भी बहुत आगे है, जहां 21 अप्रैल 2020 तक भीड़ के चंगुल में फंसकर 15-15 मौतें हो चुकी हैं, गुजरात के ऊना में 30, 2016 को भीड़ ने एक साथ पांच गैर मुस्लिमों को पीट-पीटकर मार दिया था, इसके बाद 25 सितंबर 2016 को बनासकांठा में संगीता और नीलेश की भीड़ ने हत्या कर दी थी।
वहीं राजस्थान की बात करें तो 1 अप्रैल 2017 को अलवर में पहलू खान और इरशाद खान को भीड़ ने घेर कर मार डाला था, जबकि बाड़मेर में 12 जून 2017 को दो गैर मुस्लिमों की भीड़ ने हत्या कर दी थी।
भीड़ की इस क्रूरता का सबसे ज्यादा उदाहरण बिहार और उत्तर प्रदेश से सटे झारखंड में पेश किया जाता है, जहां समय-समय पर भीड़ की ज़द में आकर लोगों की मौतें होती रहती हैं। अभी ताज़ा मामला सिमडेगा से आया था, जहां एक संजू प्रधान नाम के शख्स को भीड़ ने पहले लाठी-पत्थरों से कूच दिया, फिर अधमरी हालत में उसे जिंदा जला दिया, उस वहशी समूह के सर पर इतना खून सवार था कि न तो संजू के परिवार की कराह सुनी गई न ही घटना स्थल पर पुलिस को पहुंचने दिया गया। बाकायदा ग्राम प्रधान की मौजूदगी में हुई बैठक के बाद संजू पर आरोप लगाया गया कि वो गांव के पेड़ काटकर बेच दिया करता था, जबकि कुछ लोगों का तो ये भी कहना था कि संजू ने लोगों के धार्मिक पेड़ काट दिए जिसके कारण उसे मौत के घाट उतार दिया गया।
इसे भी पढ़ें :
संजू प्रधान की मौत के बाद सियासत की हांडी भी खूब उबली, भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष समेत तमाम विपक्षी नेता, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर हमलावर हो गए, और सोरेन सरकार की कानून व्यवस्था को धता बता दिया। सोरेन सरकार पर हमलावर होने का एक कारण ये भी था कि झारखंड की विधानसभा में एक बिल पारित किया था, जिसे नाम दिया गया-‘भीड़ हिंसा रोकथाम और मॉब लिंचिंग विधेयक, 2021’। विधेयक के अनुसार मॉब लिंचिंग के दोषी को सश्रम आजीवन कारावास के अलावा 25 लाख रुपए जुर्माना देना होगा, बिल के मुताबिक, किसी ऐसी भीड़ द्वारा धार्मिक, रंगभेद, जाति, लिंग, जन्मस्थान या किसी अन्य आधार पर हिंसा करना मॉब लिंचिंग कहलाएगा। वहीं इस घटना को दो या दो से ज्यादा लोगों के द्वारा किया जाएगा तो उसे मॉब कहा जाएगा।
हालांकि कानून आने के एक महीने के अंदर राज्य में मॉब लिंचिंग की दो घटनाएं हो चुकी हैं, पहली घटना पलामू में घटी, जहां लेस्लीगंज इलाके में एक युवक पर प्रेम प्रसंग का आरोप लगाकर भीड़ ने उसे पेड़ से उल्टा लटका कर पिटाई की, दूसरी घटना चार जनवरी को सिमडेगा जिले में घटी जहां संजू प्रधान को मौत के घाट उतार दिया गया।
अब गौर करने वाली बात ये है कि दोनों ही मामलों में मॉब लिंचिंग की धाराएं नहीं लगाई गई हैं, पलामू के सतबरवा थाना प्रभारी के मुताबिक लेस्लीगंज में घटी घटना में किसी की तरफ से शिकायत दर्ज न होने की वजह से पुलिस ने कोई एफआईआर दर्ज नहीं की है, वहीं सिमडेगा में हुई घटना के बाद 13 लोगों पर नामजद और 100 अज्ञात पर एफआईआर दर्ज की गई है।
सिमडेगा में दर्ज एफआईआर के मुताबिक आरोपियों पर आईपीसी की धारा 147 (उपद्रव करना), 148 (घातक हथियार से उपद्रव करना), 149 (अवैध जनसमूह में शामिल होकर अपराध करना), 364 (हत्या के लिए अपहरण करना), 302 (किसी की हत्या करना), 201 (साक्ष्य मिटाना) लगई गई हैं। हाईकोर्ट के वकील शैलेश पोद्दार के मुताबिक अनुसंधान के दौरान धाराएं लगाई या हटाई भी जा सकती हैं, इसका अधिकार पुलिस के पास है। ऐसे में अगर मॉब लिंचिंग एक्ट नहीं लगाई जा रही है तो थोड़ा इंतजार किया जा सकता है।
झारखंड में हुई मॉब लिंचिंग के आंकड़ों पर गौर करें तो 17 मार्च 2016 से 4 जनवरी 2022 तक 58 मामले सामने आ चुके हैं, जबकि इन मामलों में हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता एस अली कहते हैं कि इस दौरान 35 लोगों की मौत हुई है जिसमें 15 मुस्लिम, 11 हिन्दू, 5 आदिवासी, 4 ईसाई शामिल हैं। वहीं इस दौरान कुल 24 लोग घायल भी हुए हैं, जिसमें 13 ईसाई, 5 आदिवासी, 3 मुस्लिम, 3 हिन्दू शामिल हैं।
मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़ यानी PUCL के सदस्य अरविंद कुमार कहते हैं कि हेमंत सरकार ने मॉब लिंचिंग के संदर्भ में जो कानून लाया है उसे संकीर्ण कर दिया गया है। भीड़ तो डायन कह कर मार रही है, ऑनर किलिंग कर रही है, चोरी के नाम पर मार रही है। लेकिन आप गौर करेंगे तो वर्तमान कानून में इसे जगह नहीं दी गई है। सिर्फ एक खास कम्युनिटी के लोगों को मार देना ही मॉब लिंचिंग नहीं है। दूसरी बात है कि, ऐसे मामलों के आरोपी कुछ साल जेल में रहने के बाद छोड़ दिए जाते हैं, पुलिस केस को इतना कमजोर कर देती है कि पीड़ित को न्याय नहीं मिल पाता है। ले दे कर बात कंपनसेशन पर आकर खत्म हो जाती है। ऐसे में कानून का भय ऐसे लोगों पर बनेगा कैसे।
झारखंड में कुछ ऐसी मॉब लिंचिंग की घटनाओं को देखते हैं जो बेहद चर्चा में भी रही हैं और इनपर खूब सियासत भी देखने को मिली है।
18 अप्रैल 2020– रामगढ़: पेशाब कर रहे जाबिर अंसारी उर्फ राजू का नाम पूछकर पीटा गया।
11 मई 2020- दुमका में शुभान अंसारी को बकरी चोरी के आरोप में पीट-पीट कर मार दिया, वहीं दुलाल मियां घायल हो गए थे।
23 जून 2020– गोड्डा में बकरी चोरी के आरोप में बबलू शाह और उचित कुमार यादव को भीड़ ने जमकर पीटा था, जिसमें बबलू शाह की मौत हो गई थी।
2 जुलाई 2020– पूर्वी सिंहभूम जो कि जमशेदपुर में है, गाय का मांस खाने के आरोप में रमेश बेसरा को पीटा गया।
2 जुलाई 2020– दुमका में गाय मांस बेचने के आरोप में छोटेलाल टुडू और मंडल मुर्मू को पीटा गया।
16 सितंबर 2020– सिमडेगा में राज सिंह, दीपक कुल्लू, इमानुएल टेटे, सुगाद डाग, सुलीन बारला, रोशन डांग, सेम किड़ो को गोकशी के आरोप में पीटा गया, उनका सिर मुंडवाया गया और जय श्री राम के नारे लगवाए गए।
10 मार्च 2021– रांची में सचिन कुमार वर्मा को ट्रक चोरी के आरोप में पीट-पीट कर मार दिया गया।
13 मार्च 2021– रांची में मुबारक खान को बाइक चोरी के आरोप में पीट-पीट कर मार डाला गया।
19 मार्च 2021– गुमला में हत्या के आरोपी रामचंद्र उरांव को भीड़ ने पीटकर मार डाला।
उत्तर प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, गुजरात या फिर कोई भी प्रदेश हो, यहां हिंसक भीड़ द्वार मारे गए ज्यादातर लोगों को सिर्फ शक के बिनाह पर सज़ा दी गई है, वैसे इन हत्याओं को सज़ा कहना भी न्याय नहीं होगा क्योंकि हमारे संविधान में सज़ा के लिए कुछ नियम-कानून तय किए गए हैं और इसका फ़ैसला अदालत में होता है न कि सड़कों पर।
दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि आज़ादी के इतने वक्त बाद भी कानून व्यवस्था इतनी लचर कैसे हो सकती है, जहां कुछ दल बना लिए जाते हैं, और वो किसी को भी अपने हिसाब से सज़ा देने का हक़ रखते हैं। सवाल ये भी है कि हमारी टीवी चैनलों पर जिस तरह नफरत का बीज बोया जा रहा है उनसे कैसे बचा जाए? सवाल ये भी है कि छोटे-छोटे स्कूलों में बच्चों को हिंसक शपथ दिलाकर जो बबूल लगाया जा रहा है उसकी जड़ आखिर कहां है? इसके अलावा ऐसे तमाम सवाल हैं जो आपके और हमारे ज़हन में हर वक्त बने रहते हैं, लेकिन ज़रूरत है उनके जवाब ढूंढने की, क्योंकि अगर उन सवालों के जवाब वक्त रहते नहीं मिले तो कब हमारे और आपके आसपास एक अपराधी पैदा हो जाएगा इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।