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वोडाफ़ोन मध्यस्थता मामले के केंद्र में है औपनिवेशिक विरासत

भारत सरकार और वोडाफ़ोन के बीच हुई अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता प्रक्रिया का फ़ैसला आने के बाद, अब ज़रूरत है कि भारत, “निवेशक-राज्य विवाद समझौता तंत्र” में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की प्रक्रिया पर दोबारा विचार करे।
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बेंगलुरू/गुरुग्राम: अप्रैल, 2017 में इस लेख के एक लेखक ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में मुलाकात की थी। मुलाकात का उद्देश्य उनसे एक किताब के लिए सवाल करना था। "थिन डिवाइडिंग लाइन: इंडिया, मॉरीशस एंड ग्लोबल इल्लिसिट फायनेंशियल फ्लो" शीर्षक से किताब को उसी साल बाद में पेंग्विन रेंडम हाउस ने प्रकाशित किया था। किताब शिंजानी जैन के साथ मिलकर परंजॉय गुहा ठाकुरता ने लिखी थी।

चाय और नाश्ते पर हुई इस बैठक में बातचीत पांच साल पीछे चली गई, जब मुखर्जी भारत के वित्तमंत्री हुआ करते थे। उन्होंने एक अहम फ़ैसला लिया था, जिसे 2012-13 बजट का हिस्सा रहे वित्त विधेयक में शामिल किया गया। वह फ़ैसला आयकर कानून को भूतलक्षी तरीके (रेट्रोस्पेक्टिवली) से लागू करने का था, ताकि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलटा जा सके और सरकार हच के अधिग्रहण पर कर लगा सके। हच ब्रिटेन की कंपनी वोडाफोन की भारतीय टेलीकम्यूनिकेशन कंपनी थी।

सवाल उठा: क्या प्रणब मुखर्जी ने कानून को भूतलक्षी तरीके से लागू करने वाला प्रावधान डालने के पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सहमति ली थी?

मुखर्जी का शांत स्वाभाव अचानक बदल गया। उनकी आंखों में गुस्सा छा गया और उन्होंने नाराज़गी भरे अंदाज में प्रतिक्रिया दी। जिससे पता चलता है कि किसी को उनसे इस तरह का सवाल पूछने की आजादी नहीं है। मुखर्जी ने कहा कि उनकी प्रतिक्रिया बिना उन्हें उद्धृत किए प्रकाशित की जा सकती है। उनके इस भरोसे को उनकी मृत्यु 31 अगस्त, 2020 तक बनाए रखा गया। उन्होंने कहा था: "कोई भी यह नहीं जान पाएगा कि प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के बीच में क्या बातचीत हुई। वह रहस्य उनके साथ ही चला जाएगा।"

भूतलक्षी प्रावधानों वाले संशोधन आयकर कानून में शामिल कर दिए गए। यह साफ़ हो गया कि जहां तक भारत सरकार के कर लगाने के अधिकारों की बात है, तो भारत में मौजूद हर संपत्ति से संबंधित लेनदेन पर सरकार को “पूंजीगत लाभ कर (कैपिटल गेन टैक्स)” मिलेगा। भले ही संबंधित संपत्ति का वास्तविक लेनदेन भारत के क्षेत्राधिकार से बाहर हुआ हो। यह स्थिति तब भी लागू होगी, जब भारत में मौजूद संपत्ति का लेनदेन करने वाले पक्ष, भारत से बाहर लेनदेन कर रहे होंगे और उनमें से कोई भी भारतीय संस्था या कंपनी नहीं होगी।

इस संशोधन के पहले सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में एक फ़ैसला दिया था। फ़ैसले में कहा गया कि भारत सरकार हच की संपत्तियों के वोडाफोन द्वारा अधिग्रहण पर पूंजीगत लाभ कर नहीं लगा सकती, यह अधिग्रहण वोडाफोन की एक सहायक डच कंपनी और हच की हांगकांग स्थित सहायक कंपनी के बीच हुआ था। कोर्ट ने कहा कि संबंधित क्षेत्र भारतीय क्षेत्राधिकार से बाहर हैं।

भूतलक्षी तरीके से लगाए जाने वाले कर के फ़ैसले की व्यापारिक जगत और आर्थिक मीडया में खूब निंदा हुई। कहा गया कि इसने भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के स्वाभाविक प्रवाह के माहौल को दूषित किया है। मुखर्जी के बाद आए वित्तमंत्रियों (पी चिदंबरम और अरुण जेटली) ने भी मुखर्जी के फ़ैसले से असहमति जताई।

हेग में आया फ़ैसला

25 सितंबर को हेग स्थित परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन (स्थायी मध्यस्थता न्यायालय) ने अपने फ़ैसले में कहा कि भारत ने नीदरलैंड के साथ हुए अपने द्विपक्षीय समझौते का उल्लंघन किया है, जिसमें "वोडाफोन के लिए निष्पक्ष और समतावादी" रवैया सुनिश्चित करने की बात थी। कोर्ट ने कहा कि भारत अपने कर दावे को लागू नहीं कर सकता।

इस पर प्रतिक्रिया देते हुए वित्तमंत्रालय ने कहा "मंत्रालय सभी विकल्पों पर विचार करेगा और आगे के कदमों पर फ़ैसला लेगा, जिसमें संबंधित मंचों के सामने जरूरी वैधानिक कार्रवाई भी शामिल है।" आर्बिट्रेशन कोर्ट के फ़ैसले पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं। कई टिप्पणीकारों और व्यापारिक मीडिया के संपादकीय में कहा गया कि भारत को सम्मान के साथ फ़ैसला मान लेना चाहिए और वोडाफोन पर कर लगाने की कार्रवाई रोक देनी चाहिए। ताकि देश में निवेशकों के विश्वास को बनाए रखा जा सके। देश के पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (ASG) बिश्वजीत भट्टाचार्य ने एक दूसरा पक्ष रखा। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत का अपने दावे के लिए लड़ने का अधिकार है।

दोनों पक्षों में सिर्फ एक बिंदु पर ही सहमति बनती दिखाई दी। वह यह कि मध्यस्थता न्यायालय का फ़ैसला 8 साल लंबी लड़ाई की आखिरी नतीज़ा नहीं है। लेकिन सार्वजनिक विमर्श में बुनियादी सवालों की समझ की कमी दिखाई देती है।

अभी तक पूरे फ़ैसले को सार्वजनिक नहीं किया गया है, क्योंकि दोनों पक्षों ने फ़ैसले को गुप्त रखने पर सहमति जताई है (जैसा आशीष गोयल और शिल्पा गोयल ने इंटरनेशनल टैक्सेशन जर्नल ‘टैक्स नोट्स इंटरनेशनल’ में बताया)। वहीं फ़ैसले के "कार्यकारी" हिस्से को प्रेस के लिए जारी कर दिया गया है। इसमें कहा गया है कि भूतलक्षी संशोधन करने से भारत, वोडाफोन के लिए "निष्पक्ष और समतावादी व्यवहार" से भटका है। यह नीदरलैंड के साथ हुए द्वपक्षीय निवेश संधि का उल्लंघन है।

इस बात पर बहुत विश्लेषण हो चुका है कि क्या अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता से कर लगाने का मुद्दा हटा देना चाहिए। भारत सरकार का यही विचार है। प्रभावी तौर पर इससे उस ड्रॉक्टीन पर सवाल उठेगा, जिसके ज़रिए भारत की कार्रवाई को द्विपक्षीय संधि का उल्लंघन माना गया है। सवाल बनेगा कि क्या वह ड्रॉक्ट्रीन करारोपण के विषय पर लागू होगी?

"निष्पक्ष और समतावादी" पैमाने का उद्गम

इस डॉक्ट्रीन पर पास से नज़र डालने पर पता चलता है कि यह एक ऐसे विमर्श से उपजी है, जिसका भारत कभी हिस्सा नहीं रहा। इस डॉक्ट्रीन का मूल "सभ्य बनाने" के औपनिवेशिक दर्शन से पैदा हुए ढांचे में छुप हुआ है, जिसे भारत सरकार ने मान लिया था।

1923 में US और मेक्सिको के बीच एक विवाद के निपटारे के लिए आयोग बनाया गया था। आयोग ने यह सिद्धांत दिया: "किसी विदेशी से दुर्व्यवहार की शिकायत पर फ़ैसला देने के क्रम में देशी और विदेशी पक्षों के साथ समतावादी व्यवहार से जुड़े तथ्य अहम होते हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कानून को ध्यान में रखते हुए, यह आखिरी जांच नहीं हो सकती। मोटे तौर पर यह जांच होती है कि क्या विदेशियों से “सभ्यता के सामान्य दर्जे” के हिसाब से व्यवहार किया गया या नहीं।"

प्रभावी तौर पर आयोग कह रहा था कि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत “सभ्यता का एक सामान्य दर्जा” है, जिसके द्वारा किसी संप्रभु सरकार के विदेशी नागरिकों के साथ किए गए व्यवहार को जांचा जा सकता है। यह जांच तब भी हो सकती है, जब सरकार अपने कानूनों के हिसाब से काम कर रही हो और विदेशियों को अपने नागरिकों की तरह वैधानिक बराबरी भी उपलब्ध करवाई गई हो। उस वक़्त इस वैधानिक डॉक्ट्रीन को बड़े स्तर पर मान्यता मिल गई, क्योंकि तब दुनिया बड़े-बड़े साम्राज्यों में विभाजित थी।

इस डॉक्ट्रीन को कुछ दशक पहले तब चुनौती मिली, जब 20 वीं शताब्दी के मध्य में कई देशों को स्वतंत्रता मिली और उन्होंने पुराने औपनिवेशिक देशों से अपनी राष्ट्रीय संपत्तियों पर नियंत्रण करने की कोशिशें शुरू कीं। नए देशों का मानना था कि इस तरह के विदेशी निवेशकों को घरेलू कानून के तहत जरूरी मुआवज़ा दिया जाना चाहिए। वहीं औपनिवेशिक देशों ने इस विचार को आगे बढ़ाया कि विदेशी नागरिकों और उनके निवेशकों के साथ एक “तय दर्जे का सद्व्यवहार” किया जाना चाहिए। “सभ्यता के सामान्य दर्जे” वाली डॉक्ट्रीन को औपनिवेशिक शासन के बाद एक नए ढंग से ढाला गया।

संयुक्त राष्ट्रसंघ में नए स्वतंत्र देशों ने महासभा में 1950, 1960 और 1970 के दशक में कई प्रस्ताव पारित कर अपने विचार को आगे बढ़ाया। इसकी परिणिति 1972 में एक नए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक तंत्र और 1974 के “चार्टर ऑफ इकनॉमिक राइट्स एंड ड्यूटीज़ ऑफ स्टेट” में हुई। महासभा से बहुत बड़े बहुमत के साथ पारित हुए इन प्रस्तावों में कानूनी तौर पर “अनिवार्य प्रावधान” शामिल नहीं थे। ना ही इनका विकसित और पूंजी निर्यात करने वाले पूर्व औपनिवेशक देशों ने समर्थन किया।

पूंजी निर्यातकों ने अपनी अलग रणनीति अपनाई। उनके पूर्व उपनिवेशों ने संगठित होकर “व्यवहार के न्यूनतम दर्जे” की डॉक्ट्रीन का विरोध किया, इससे पार पाने के लिए उन्होंने द्विपक्षीय निवेश समझौतों का रास्ता अपनाया। पूंजी निर्यातक देशों ने तय किया कि इन समझौतों की शर्तों में व्यवहार के न्यूनतम दर्जे की डॉक्ट्रीन के प्रावधान शामिल हो जाएं। उन्होंने इन द्विपक्षीय समझौतों में विदेशी निवेश को बढ़ाने का फायदा दिखाया।

जब भारत ने पहली बार ब्रिटेन के साथ द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए, तब तक इन समझौतों का सामान्य ढांचा बन चुका था। दुनिया भर में 1970 के दशक के आखिर से ऐसे सैकड़ों समझौते हो चुके थे। भारत विमर्श में हिस्सा लेने से चूक चुका था। जब इन पर विमर्श चल रहा था तब भारत बंद अर्थव्यवस्था था, जिसका मुख्य ध्यान आयात का विकल्प खोजने पर होता था। भारत, विदेशी निवेश के प्रति तब अनिच्छुक भी था। परिणामस्वरूप 1990 के दशक में भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर के जिन द्विपक्षीय समझौतों पर कई देशों के साथ हस्ताक्षर किए, उनके ढांचों में ना तो भारत सरकार और ना ही भारत के नागरिक समाज का कोई विमर्श शामिल था।

वोडाफोन द्वारा हच के अधिग्रहण पर भारत द्वारा भूतलक्षी करारोपण कर, जिस “निष्पक्ष और समतावादी व्यवहार” से वोडाफोन को वंचित कर दिया गया, दरअसल वह भारत और नीदरलैंड के बीच हुए निवेश समझौते में शामिल “व्यवहार का न्यूनतम दर्जा” डॉक्ट्रीन का एक तत्व है।

भारत के पास भारतीय कंपनी की बिक्री पर कर लगाने का अधिकार क्यों नहीं है

बिज़नेस स्टेंडर्ड के लिए लिखे एक लेख में पूर्व ASG भट्टाचार्य ने मजबूती से तर्क दिया है कि भारत को वोडाफोन द्वारा हच के अधिग्रहण पर कर लगाने का पूरा अधिकार है।

पहली बात, वोडाफोन ने हच के अधिग्रहण के लिए पहले भारत सरकार के “विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड” की अनुमति मांगी थी। अगर बोर्ड के पास लेन-देन के लिए अनुमति देने का क्षेत्राधिकार है, तो ऐसा कैसे संभव है कि भारत सरकार के ही कर विभाग के पास करारोपण का क्षेत्राधिकार नहीं है? ऐसा कैसे संभव है कि सरकार के एक अंग के पास क्षेत्राधिकार हो, लेकिन दूसरे के पास नहीं?

वोडाफोन द्वारा करारोपण को चुनौती दिए जाने पर उन्होंने लिखा, “भारतीय संसद द्वारा संशोधित कानून सिर्फ कागज़ो तक सीमित हो गया… और कर मामलों पर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता वाले एक गैरकानूनी क्षेत्राधिकार के सामने भारत झुक गया।” नीदरलैंड के साथ हुई संधि अंतरराष्ट्रीय निवेशकों को जो वायदे करती है, उनके दायरे से कर मामले बाहर हैं। उन्होंने आगे कहा, “संधियों के प्रावधान घरेलू कानूनों के साथ सामंजस्य में होने चाहिए।” भट्टाचार्य ने ध्यान दिलाया कि संधि के नतीज़े घरेलू कानून और पुराने न्यायिक फ़ैसलों के विरोध में जाते हैं।

फॉर्च्यून इंडिया के लिए लिखे एक लेख में विश्लेषक मुकेश बुटानी और तरुण जैन ने लिखा: डिज़ाइन और न्यायिक सहमति के हिसाब से करारोपण में ना तो समता है और ना ही कर कानून में निष्पक्षता है। इनका मुख्य उद्देश्य किसी संप्रभु राज्य के तहत आने वाले विषय पर सिर्फ एक अनुमान को थोपना होता है।” उन्होंने पूछा कि क्या मध्यस्थता पैनल के फ़ैसले के हिसाब से एक बार निवेश करने के बाद, निवेशक पर कर लगाने का विधायी और संप्रभु अधिकार सरकार खो देती है?

उन्होंने आगे बताया कि ऐसे उदाहरण भी मौजूद हैं, जहां संसद ने करदाताओं के लिए कर कानूनों में भूतलक्षी संशोधन किए, वहां उनके पास इस तरह के संशोधन को कानूनी ठहराने और लागू करने का स्पष्ट कानूनी अधिकार भी था। इसका अधिकार संविधान से हासिल होता है।” आखिर वोडाफोन के मामले में यह चीज लागू क्यों नहीं होनी चाहिए? उन्होंने सलाह दी है कि सरकार इस सवाल पर भारतीय कोर्ट का रुख कर सकती है।

तीन सवालों के जवाब दिए जाने बाकी हैं।

  • क्या भारतीय सरकार सिंगापुर हाईकोर्ट में अपील करेगी (मध्यस्थता की वैधानिक सीट)?
  • क्या वोडाफोन भारतीय कोर्ट या किसी विदेशी कोर्ट में जाकर मध्यस्थता कोर्ट के फ़ैसले को लागू करवाने की कोशिश करेगा?
  • क्या भारत सरकार अपने संप्रभु अधिकार की रक्षा करने के लिए किसी भारतीय कोर्ट का रुख करेगी?

सरकार की गणना के लिए टेलीकम्यूनिकेशन इंडस्ट्री में चल रही चीजें भी मायने रखेंगी। कुछ हफ़्ते पहले तक हजारों करोड़ रुपये चुकाने के कोर्ट के आदेश पर, सरकार वोडाफोन और एयरटेल के लिए सुप्रीम कोर्ट से ज़्यादा वक़्त की मांग कर रही थी, ताकि रिलायंस जियो के प्रभाव वाले बाज़ार में प्रतिस्पर्धा बनाई रखी जा सके। लेकिन एक बड़ा सवाल अब भी बाकी है?

क्या भारत “न्यूनतम दर्जे” वाली डॉक्ट्रीन में बदलाव कर सकता है?

हाल के सालों में विकसित देशों समेत अंतरराष्ट्रीय मत, द्विपक्षीय निवेश संधि ढांचे के कुछ पहलुओं के खिलाफ़ होने लगा है। खासकर विवाद निपटारा तंत्र में मध्यस्थता की भूमिका। कुछ बड़े विपरीत फ़ैसलों ने अविश्वास का माहौल बना दिया है, जिसमें मध्यस्थता के ज़रिए विवाद निपटारे को संशय की नज़र देखा जा रहा है।

उदाहरण के लिए, ओक्सीडेंटल पेट्रोलियम कॉरपोरेशन ने इक्वॉडोर के खिलाफ़, अमेरिका से हुई द्विपक्षीय संधि के तहत मुक़दमा दर्ज किया था। मामले में फ़ैसला देते हुए एक न्यायिक पीठ ने इक्वॉडोर से कंपनी को 2.3 बिलियन डॉलर का मुआवज़ा देने को कहा था। जबकि न्यायिक पीठ ने माना था कि कंपनी ने इक्वॉडोर का कानून तोड़ा है।

ऊपर से पर्यावरण, सार्वजनिक स्वास्थय ढांचे या आर्थिक अस्थिरता से बचने के लिए उठाए जाने वाले सार्वजनिक नीतिगत् फैसलों में सरकार के खिलाफ़ मध्यस्थता दावे दाख़िल कर दिए जाते हैं।

2001-02 में बढ़ती महंगाई के बीच अर्जेंटीना ने कीमतों पर नियंत्रण करने और स्थिरता बनाए रखने के लिए कुछ कदम उठाए, जिसके चलते अर्जेंटीना के खिलाफ़ 40 से ज़्यादा मध्यस्थता दावे दाख़िल किए गए।

हाल में अंतरराष्ट्रीय सिगरेट निर्माता फिलिप मोरिस ने ऑस्ट्रेलिया और उरुग्वे के खिलाफ़ उनके धूम्रपान विरोधी प्रयासों के साथ-साथ साधारण पैकिंग और चेतावनी देने वाले अनिवार्य संदेश के खिलाफ़ मध्यस्थता दावा दाख़िल किया था।

इसके चलते अब ऐसी स्थितियां बन रही हैं, जिनमें कई देश विवाद निपटारा तंत्र की मुख़ालफत करने लगे हैं। आलोचकों का कहना है कि सार्वजनिक नीतिगत् फ़ैसलों पर यह व्यवस्था बिना चुने हुए, बिना जवाबदेही वाले न्यायिक पीठों, जिनमें कॉरपोरेट वकील शामिल होते हैं, उन्हें फ़ैसला सुनाने का अधिकार देती है। जबकि इन फ़ैसलों के खिलाफ़ कहीं अपील भी दायर नहीं की जा सकती। ऑस्ट्रेलिया, इक्वॉडोर, दक्षिण अफ्रीका और इंडोनेशिया ने घोषणा की है कि वे भविष्य की संधियों में विवाद निपटारे के लिए मध्यस्थता के उपबंध को शामिल नहीं करेंगे या फिर वे मौजूदा संधियों से बाहर आ जाएंगे।

भारत भी इसी रास्ते पर चल चुका है। 2015 में सरकार ने द्विपक्षीय निवेश संधि के लिए एक नया ढांचा निकाला था, जिसमें “न्यूनतम दर्जे वाले व्यवहार” डॉक्ट्रीन के कुछ पहलुओं को छोड़ दिया गया था, जिसमें “निष्पक्ष और समतावादी” दर्जा भी शामिल था। साथ में संधि की शर्तों से करारोपण को बाहर रखा गया था। तबसे भारत ने अपनी ज़्यादातर द्विपक्षीय संधियों को ख़ारिज कर दिया है और उनपर दोबारा बातचीत कर रहा है। बची हुई संधियां, जिनमें भारत अब भी साझेदार है, उनमें भारत ने भागीदार देशों से “ज्वाइंट इंटरप्रेटिव स्टेटमेंट” पर हस्ताक्षर करवाए हैं, ताकि इन संधियों को भारत के नए तंत्र के हिसाब से ढाला जा सके।

लेकिन वोडाफोन केस एक मौका देता है, जब इन चीजों पर दोबारा ज़्यादा बुनियादी विमर्श किया जाए। ख़ासकर भारत के तेज़तर्रार नागरिक समाज के द्वारा ऐसा किया जाना जरूरी है। जब सरकार लगातार ज़्यादातर क्षेत्रों को खोल रही है, तब उन्हें निश्चित ही विदेशी निवेश की बेहद जरूरत पड़ेगी। लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या भारत को विदेशी निवेश के लिए औपनिवेशिक “सभ्य बनाने वाले मिशन” का पालन करना जारी रखना पड़ेगा?

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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