दुष्प्रचार अभियान के ख़िलाफ़ आर्थिक मुद्दों के साथ लड़ता किसान आंदोलन
अरुण श्रीवास्तव सत्ताधारी पार्टी के निहित स्वार्थों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि भाजपा-आरएसएस गठबंधन राष्ट्रीय किसान आंदोलन को बदनाम और खारिज करने के लिए एक ज़बरदस्त अभियान चलाये हुए है।
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आरएसएस और भाजपा देश को यह समझाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाये हुए हैं कि इन तीनों कृषि क़ानूनों के निरस्त किये जाने की मांग करने वाला किसानों का यह आंदोलन देश के हितों के ख़िलाफ़ है और धीरे-धीरे परिदृश्य से ग़ायब हो रहे किसानों के नेता अप्रैल से अपने आंदोलन को फिर से शुरू करने की योजना बना रहे हैं।
चूंकि कई किसान नेता, भाजपा के ख़िलाफ़ वोट देने को लेकर किसानों को संगठित करने के लिए इस साल हो रहे विधान सभा चुनाव वाले राज्यों के दौरे पर निकल पड़े हैं। लेकिन, आरएसएस-भाजपा गठबंधन आंदोलन स्थलों से किसान नेताओं की इस ग़ैर-मौजूदगी का इस्तेमाल कुछ इस बात को दिखाने में कर रही है कि यह आंदोलन अपनी ऊर्जा खो रही है। किसानों,ख़ासकर सुदूर ग्रामीण इलाक़ों में किसानों को रिझाने के लिए इसका इस्तेमाल यह समझाने में किया जा रहा है कि उनके नेता आंदोलन को लंबा चला पाने की हालत में नहीं हैं।
भगवा नेताओं का तर्क है कि केंद्र सरकार द्वारा इन क़ानूनों को ख़त्म करने की उनकी मांग को मानने से इन्कार कर देने के बाद अपने आंदोलन को ख़त्म करने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प बचा ही नहीं है।
किसान आंदोलन भाजपा की राजनीतिक रणनीति के लिए ख़तरा
हालांकि, यह आंदोलन निकट भविष्य में सरकार की चिंता का कारण बना हुआ है। देर-सवेर यह तो पता चल ही जायेगा कि किसानों का यह आंदोलन न सिर्फ़ उनके राजनीतिक आधार को तबाह करने वाला ख़तरा बन गया है,बल्कि हिंदुत्व के राजनीतिक फ़लक को भी इस आंदोलन ने एक अलग मोड़ दे दिया है।
पिछले कुछ सालों में हिंदुओं के मन में मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस्लाम से पेश आने वाले ख़तरे को डालने को लेकर झूठ-मूठ का जो ज़बरदस्त अभियान चलाया गया है,वह इस किसान आंदोलन की वजह से धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ता जा रहा है।
इसकी सबसे अच्छी मिसाल उत्तर प्रदेश के कई इलाक़ों, ख़ासकर मुज़फ़्फ़रनगर में सामने आ रहा नया सांप्रदायिक सद्भाव है। आरएसएस ने 2013 में इस इलाक़े को अपनी सांप्रदायिक और नफ़रत की राजनीति को आज़माने के लिए प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल किया था,ताकि मुसलमानों के ख़िलाफ़ आतंक का शासन शुरू किया जा सके। अब यही इलाक़ा किसान आंदोलन को ताक़त देने के लिहाज़ से हिंदू और मुसलमान,दोनों समुदायों के एक दूसरे के हाथ मिलाने का गवाह बन रहा है और यह नयी स्थिति किसानों की मांगों को पूरा करने के लिहाज़ से सरकार पर दबाव बढ़ा रही है।
लेकिन,देश की राजनीति में किसानों का जो हस्तक्षेप हो रहा है,वह कहीं ज़्यादा अहम है। एक आम धारणा यही रही है कि राजनीति या शासन में किसानों की अहम हिस्सेदारी नहीं होती है, और न ही उन्हें इस बात से कोई लेना-देना होता है कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि किस तरह कार्य करते हैं या पेश आते हैं।
माना जाता रहा है कि सरकारों को लेकर उनकी यही बेपरवाही किसी भी सरकार की तरफ़ से की जाने वाली उनकी अनदेखी के लिए ख़ास तौर पर जिम्मेदार रही है।
हमारे हालिया राजनीतिक इतिहास में सबसे अमीर किसानों ने ही चुनाव में भाग लिये हैं और चुनाव जीते भी हैं, और फिर उन्होंने भी विधानसभाओं और सरकारों में समृद्ध किसानों के हितों और आर्थिक फ़ायदे की ही वकालत की है।
आज़ाद भारत के इतिहास में शायद पहली बार चल रहा यह किसान आंदोलन किसानों के उन सभी वर्गों के लिए अपनी आबाज़ उठा रहा है,जिसमें ग़रीब किसान और कृषि मज़दूर भी शामिल हैं।
केंद्र सरकार के किसी भी शख़्स ने यह कभी सोचा भी नहीं रहा होगा कि अलग-अलग किसान संगठन एक ही स्वर में बोल उठेंगे।
शायद यही वजह रही होगी कि सरकार ने इन तीनों क़ानूनों को बनाते हुए उनसे सलाह नहीं लेने का फ़ैसला किया होगा। सरकार यह मानकर चली थी कि किसानों के विभिन्न वर्गों के बीच असहमति का मतलब यही है कि कोई भी आंदोलन जल्दी ही ख़त्म हो जायेगा। लेकिन,अपने विगत पराजय से सीख लेते हुए किसानों ने रणनीतिक रूप से बदलाव किया और चुनावी राजनीतिक मंच पर सक्रिय रूप से भाग लिया।
यह अभी तक साफ़ नहीं है कि इस साल पांच राज्यों में हो रहे चुनावों के नतीजे पर इस आंदोलन के असर क्या होंगे,लेकिन इन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के इस अभियान ने निश्चित रूप से भाजपा को रक्षात्मक मुद्रा में ला खड़ा किया है।
किसानों का यह आंदोलन कम से कम कुछ ग्रामीण मतदाताओं को इन चुनावों के साथ उनकी उनकी रोज़ी-रोटी के भविष्य को जोड़ पाने में कामयाब रहा है।
आंदोलन को बदनाम करने का अभियान
2014 में जब से प्रधानमंत्री मोदी की सरकार सत्ता में आयी है, तब से कोई शक नहीं कि लोकतांत्रिक संस्थान और संविधान,दोनों कमज़ोर हुए हैं। हमारी यह धारणा ग़लत साबित हुई है कि हमारे लोकतांत्रिक संस्थान मज़बूत हैं,ऐसा इसलिए,क्योंकि इन संस्थानों पर हो रहे लगातार हमले से इन संस्थानओं के दीर्घकालिक सेहत पर बुरा असर पड़ा है।
किसानों का निरंतर विरोध इस सरकार के लिए अबतक का सबसे बड़ा झटका है,यही वजह है कि सरकार ने शुरू में संयम बनाये रखने की कोशिश की थी। हालांकि,सरकार लंबे समय तक इंतज़ार नहीं कर सकती।
केंद्र सरकार इन विवादित क़ानूनों को लागू करने पर ज़ोर देगी। कॉरपोरेट,सरकार को फ़ायदा पहुंचाने वाले पूंजीपति( क्रोनी कैपिटलिस्ट) और दक्षिणपंथी ताक़तों के हित इतनी ज़बरदस्त प्राथमिकता वाले हैं कि इन्हें किसानों के इस आंदोलन को कमज़ोर करना है।
इसी कोशिश का हिस्सा आंदोलन को बदनाम करने वाला वह सरकारी दुष्प्रचार अभियान और लगातार फ़ैलायी जा रही वे ग़लत सूचनायें भी हैं, जिनमें कहा जा रहा है कि किसान धरना स्थलों से जा रहे हैं और ज़्यादातर किसान इस आंदोलन में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हैं।
इस साल जनवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने आगाह किया था कि ग़ैरक़ानूनी विरोध प्रदर्शन के ज़रिये लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित नहीं होने दिया जा सकता। हालांकि, एक तरफ़ यह चेतावनी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थकों की तरफ़ से यूएस कैपिटल पर हुए तोड़-फोड़ के संदर्भ में थी। तो वहीं दूसरी तरफ किसानों की मांगें पूरी नहीं होने की स्थिति में भारत के गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में एक शांतिपूर्ण ट्रैक्टर मार्च निकालने की किसानों की मांग पर भी इसके ज़रिये निशाना साधा गया था। यह किसानों के विरोध को कमज़ोर करने के लिहाज़ से दिया गया एक शातिर बयान था।
केंद्र सरकार ने किसानों के इस आंदोलन को नाकाम करने के लिए बेरहमी से संसदीय पैनल का भी इस्तेमाल किया है। खाद्य,उपभोक्ता मामले और सार्वजनिक वितरण सम्बन्धी स्थायी समिति ने एक रिपोर्ट के ज़रिये इस बात की सिफ़ारिश की थी कि सरकार “आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 को बिना किसी अगर-मगर के पूरी तरह लागू करे, ताकि इस देश में खेत-बाड़ी से जुड़े किसान और अन्य प्रभावित लोग उक्त अधिनियम के तहत मिलने वाले अपेक्षित लाभ पाते रहें। इसके एक दिन बाद ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस,जिसके पास इस समिति की अध्यक्षता थी,उसने दावा किया कि यह रिपोर्ट भाजपा की "गंदी चाल चलने वाले विभाग की हरक़त" का एक और सुबूत है।
सवालों के घेरे में कृषि सुधार की प्रकृति
कुछ उदार अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों का तर्क है कि भारतीय कृषि को सुधारों की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन,कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि इस मोड़ पर इस तरह के तर्क से सिर्फ़ सरकार के दुष्प्रचार अभियान को ही मदद मिलती है और किसान विरोधी ताक़तों को भी बल मिलता है।
इनमें से कुछ लोगों का यह भी तर्क है कि हरित क्रांति भी सुधारों की दिशा में बढ़ाया गया एक क़दम थीऔर साथ ही सिंचाई और बाज़ार के बुनियादी ढांचे में निवेश से भी प्रेरित थी। हालांकि, अगर ऐसा ही था तो सवाल है कि बाद के सालों में इस तरह के क़दम ने एक संस्थागत चरित्र क्यों नहीं अख़्तियार किया और आज भी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए संघर्ष क्यों करना पड़ रहा है ?
किसी भी सार्थक कृषि सुधार में भूमि सुधार को शामिल किया जाना चाहिए, न कि महज़ अनाज की उत्पादकता बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। दरअसल भारतीय कृषि संकट की जड़ पूंजीवाद में निहित हैंऔर सुधारों को लेकर गढ़े जाने वाले इस तरह के तर्क इसके वजूद को आधार देते हैं।
इस किसान आंदोलन को ही इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि इसने पहली बार इस तरह के सुधार मॉडल की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं। (आईपीएस सर्विस)
यह लेख मूल रूप से द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
Taking up Economic Issues, Farmers’ Agitation Combats Vilification Campaign
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