अंबेडकर जयंती विशेष – जाति क्यों नहीं जाती?
हर बार की तरह इस बार भी, पूरा देश एक बार फिर डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती (14 अप्रैल) मनाने की तैयारी कर रहा है। करीब-करीब हर राजनीतिक पार्टी डॉ. भीमराव अंबेडकर को याद करती है और उनके योगदान की अपनी-अपनी विचारधारा के हिसाब से व्याख्या करती है। लेकिन ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियां डॉ. अंबेडकर के उद्देश्य को प्रचारित नहीं करती हैं और न ही उसे हासिल करने की बात करती हैं।
क्यों राजनीतिक पार्टियां उनके उद्देश्यों या उनके विचारों को आत्मसात नहीं कर पाती है, क्योंकि इसके पीछे भारतीय समाज की जाति-आधारित संरचना आड़े आती है जो सवर्ण जातियों के पक्ष वाली व्यवस्था है और जिससे उन्हे राजनीतिक लाभ मिलता है। यही कारण है कि डॉ. अंबेडकर की जयंती तो मनाई जाती है लेकिन इससे जुड़े सभी समारोह से उनकी विचारधारा और लक्ष्य गायब हो जाते हैं।
केंद्र में दक्षिणपंथी विचार वाली पार्टी के सत्ता में आने से जाति का मसला और भी जटिल हो गया है क्योंकि सत्तावादी भाजपा का मक़सद हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना है और हिन्दू धर्म में दलितों और पिछड़ों का कोई सम्मानजनक स्थान नहीं है। दलित-आदिवासी जातियों (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों) के बारे में यह हक़ीक़त और भी भयानक है।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने इसे अमृतकाल कहा है क्योंकि देश आज़ादी की 75वीं सालगिरह माना रहा है। यह साल वह साल भी है जब देश के दो राज्यों केरल और तमिलनाडु में वाइकोम आंदोलन की 100वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। वाइकोम आंदोलन वह आंदोलन है जिसके माध्यम से केरल और तमिलनाडु में पिछड़ों और दलित जातियों ने आंदोलन लड़ा था और हर मार्ग पर चलने तथा मंदिरों में प्रवेश का अधिकार जीता था। इस आंदोलन का इतना असर था कि पूरे केरल में किसी भी जाति के मंदिर में प्रवेश पर कोई रोक नहीं थी। आज केरल में दलित उत्पीड़न की घटनाएँ न के बराबर हैं।
लेकिन क्या यह सच उत्तर, पश्चिम या पूर्वी भारत का भी सच हो सका? जवाब है नहीं। यदि आप उत्तर भारत के बड़े राज्यों की बात करें तो आज दलितों के खिलाफ अत्याचारों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। 2018 से दलितों के खिलाफ अपराध के 1.3 लाख से अधिक मामले दर्ज़ किए गए हैं और यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश दलितों के खिलाफ अपराध के मामले में सबसे ऊपर हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, तीन वर्षों में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति (एससी) के खिलाफ अपराध के अधिकतम 36,467 मामले दर्ज किए गए, इसके बाद बिहार (20,973 मामले), राजस्थान (18,418) और मध्य प्रदेश में (16,952) मामले दर्ज़ हुए हैं। सनद रहे कि ऐसे बहुत से मामले हैं जिन्हे बाहुबलियों, सामंतों और पुलिस की धमकियों की वजह से दर्ज नहीं किया जाता है।
अंबेडकर का विचार
अंबेडकर ने अपने भाषणों और लेखों में इस बात को बार-बार दोहराया है कि जब तक भारतीय जाति व्यवस्था से चतुरवर्ण को समाप्त नहीं किया जाता है तब तक जातिवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता है। वे चतुरवर्ण के पक्ष में हर दलील को गैर-तार्किक और पक्षपाती मानते थे। उनका मानना था कि जाति इसलिए नहीं जाती क्योंकि जाति को वेदों, पुराणों और स्मृतियों में हिन्दू धर्म का मुख्य आधार माना गया है। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश संसद में हमेशा हिंदू रुढ़िवादी धार्मिक नेताओं का जमकर विरोध किया था। हिन्दू धर्म में छुआ-छूत के विरोध में 1956 में डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को अपना लिया था और कहा था कि हिन्दुत्व की विचारधारा जाति-व्यवस्था को मजबूत करने वाली व्यवस्था है।
1936 में जाति-विनाश (Annihilation of Caste) पर लिखी अपनी किताब में उन्होंने हिन्दू धर्म में नीची जातियों के दमन की अनुमति पर हिन्दू रुढ़िवादी धार्मिक नेताओं और ग्रन्थों को आड़े हाथ लिया था और इसे दलितों के खिलाफ अमानवीय दमन और हिंसा बताया था।
भाजपा क्यों मनुस्मृति को संविधान का जगह स्थापित करना चाहती है
उदाहरण के लिए, मनुस्मृति को लें जिसे भाजपा और संघ के नेता देश के संविधान की जगह स्थापित करना चाहते हैं। मनुस्मृति कहती है कि ब्राह्मण चाहे किसी भी उम्र का हो वह पितातुल्य होता है और 100 वर्ष के क्षत्रिय को भी 10 वर्ष के ब्राह्मण को पिता बराबर मानना चाहिए, (मनुस्मृति, 2/38)। फिर यह शूद्र के बारे में कहती है कि; शूद्र द्वारा अर्जित धन को ब्राह्मण निर्भीक होकर ले सकता है क्योंकि शूद्र को धन रखने का अधिकार नहीं है, (मनुस्मृति,8/416)। जितना पाप बिल्ली, नेवला, चिड़िया, मेंढक, गधा, उल्लू और कौवे की हत्या करने में लगता है उतना ही पाप शूद्र (यानी दलित, पिछड़ों और आदिवासियों) की हत्या करने में लगता है, (मनुस्मृति, 11/131)। ब्राह्मण दुश्चरित्र भी पूजनीय है जबकि शूद्र जीतोन्द्रिय होने पर भी सम्मानीय नहीं है, (मनुस्मृति, 8/33)। जो शूद्र अपने प्राण, धन और स्त्री को ब्राह्मण को अर्पित कर दे, उस शूद्र का भोजन करने योग्य है, (विष्णु-स्मृति, 8/33)।
मनुस्मृति में ऐसी कई बातें हैं जो शूद्रों को उनके सभी अधिकारों से वंचित करती हैं और उन्हें ऊंची जातियों या कहिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था के रहम-ओ-करम पर छोड़ देती है। कोई धार्मिक ग्रंथ ऐसा नहीं है जो धर्म के आधार पर सबको सम्मान भरा जीवन व्यतीत करने की बात करता हो।
हाल ही में रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों को लेकर घमसान हो गया जब बिहार के शिक्षामंत्री चंद्रशेखर ने कहा कि रामचरितमानस, मनुस्मृति और गोलवलकर की बंच ऑफ थोट्स किताब दलितों के खिलाफ नफरत फैलाने का काम करती हैं और समाज में विभाजन पैदा करते हैं। इस पर पर भाजपा के नेताओं ने उन पर रामचरितमानस का अपमान करने का आरोप लगाया और उन्हे मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की मांग की। यहाँ तक कि उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी भी दी जाने लगी। लेकिन वे अपने बयान पर अड़े रहे और रामचरितमानस की उस चौपाई को दोहराया जिसमें दलितों और पिछड़ों के प्रति नफरत और अवमानना जताई गई है; ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी- ये सब ताड़न के अधिकारी। उनके समर्थन में समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पार्टी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य आए उन्होंने भी रामचरितमानस की चौपाइयों को दलितों और पिछड़ों का अपमान बताया।
अब इस सवाल पर गौर कीजिए, यदि समाज का करीब 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा धार्मिक ग्रन्थों में मौजूद उक्त भेदभावों से क्षुब्द है तो सत्ताधारी पार्टी को सभी समूहों से बात करनी चाहिए और जातिवादी प्रतिक्रिया को नियंत्रण में लाने की कोशिश करनी चाहिए और एक ऐसा रास्ता अख़्तियार करना चाहिए था जिससे सदियों से हो रहे भेदभाव और ज़ुल्म को खत्म किया जा सके और एक न्याययौचित समाज बनाया जा सके जो सामाजिक न्याय की बुनियाद पर आधारित हो। लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि इसे धर्म का अपमान बताया जाने लगा और इन नेताओं को हिन्दू धर्म में अलग-थलग करने की कोशिश की जाने लगी।
सोचिए यदि आज, आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी आज़ाद हिंदुस्तान में किसी राजनीतिक नेता को धार्मिक और जातीय अपमान के खिलाफ बोलने का हक़ नहीं है तो डॉ. अंबेडकर ने किस किस्म का विरोध झेला होगा?
सामाजिक न्याय का रास्ता
इसलिए आज सामाजिक न्याय का मुद्दा वैसे ही खड़ा है जैसे कि वह आज़ादी के समय खड़ा था। जो थोड़ी बहुत राहत नौकरियों और शिक्षा में अराक्षण से मिली थी, वक़्त के साथ वह भी नव-उदारवादी नीतियों की वजह से गौण होती जा रही है। क्योंकि सरकारी नौकरियां है नहीं और निजी कंपनियों में अराक्षण की सुविधा नहीं है। साथ ही उच्च शिक्षा के निजीकरण से दलितों और पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षा हासिल करना कठिन होता जा रहा है। और यदि किसी तरह उनका दाखिला किसी सरकारी उच्च संस्थान में हो भी जाता है तो उन्हें जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है, समस्याएं जटिल हैं लेकिन समाधान दूर-दूर तक नज़र नहीं आता है।
अक्सर यह चर्चा होती है कि दलितों के खिलाफ हिंसा और दमन के खिलाफ दलितों को बड़े स्तर पर लामबंद किया जाना चाहिए। यह सही भी और विभिन्न दलित संगठन और पार्टियां इस किस्म के जुटान के लिए काम भी करती हैं। लेकिन उनका वैचारिक हमला जातिवादी व्यवस्था पर तो होता है लेकिन उस पूंजीवादी और सामंती व्यवस्था पर नहीं होता है जो इसे सींचती है।
इस विश्लेषण से दो तरह के काम निकलते हैं जो भविष्य में सामाजिक न्याय के आंदोलन को दाँत मुहैया करा सकते हैं। एक तो, सभी दलित और पिछड़े संगठनों को अपनी लड़ाई को नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ निर्देशित करना होगा जैसा कि किसान आंदोलन ने किया और सरकार को हार माननी पड़ी। इसके लिए निजी संस्थानों में आरक्षण, महंगाई और बेरोज़गारी के खिलाफ लामबंदी, शिक्षा के भगवाकरण के खिलाफ लगातार आवाज़ उठाना और सभी सरकारी आरक्षित पदों को भरने तथा नई सरकारी नौकरियों के अवसर पैदा करने के आंदोलन को तेज़ करना होगा। यह तभी होगा जब सभी संगठन किसानों की तरह एक बड़े बैनर तले इकट्ठा होंगे अपनी मांगों और सामाजिक न्याय के लिए व्यापक आंदोलन से जोड़ेंगे।
दलित उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आम जनता की लामबंदी भी ज़रूरी
दूसरा जो काम अत्याधिक जरूरी है वह राजनीतिक पार्टियों के हवाले का काम है। अक्सर देखा जाता है कि दलित उत्पीड़न के खिलाफ दलित संगठन सड़कों पर उतरते हैं और उन्हे सामंती गुंडों और पुलिस के हमलों का सामना करना पड़ता है। इसलिए यह ज़िम्मेदारी राजनीतिक पार्टियों की है कि वे दलितों के मुद्दे पर एक साथ आएं और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर जनता की व्यापक लामबंदी करें ताकि एक जनमत तैयार किया जा सके कि देश की बहुमत जनता को सदियों के उत्पीड़न से निजात दिलाने काम पूरा हो। ऐसा करने से ही आप हिन्दू राष्ट्र बनाने की मुहिम को रोक पाएंगे और सामाजिक न्याय पर आधारित समाज का गठन कर पाएंगे जिसमें जातीय और धार्मिक भेदभाव की कोई जगह नहीं होगी और देश का अल्पसंखयक समुदाय भी अपनी बेहतर भूमिका अदा कर पाएगा। सभी राजनीतिक पार्टियों (विपक्ष) की तरफ से यह डॉ. अंबेडकर के सपनों को पूरा करने का एक बड़ा कदम होगा।
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