डॉ. अंबेडकर की विरासत दांव पर
आज जब देश डॉ. अंबेडकर की जयंती मना रहा है, उनकी विरासत कई अर्थों में दांव पर है। आधुनिक लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्माण की उनकी सम्पूर्ण परियोजना आज गहरे संकट में है। उनके बनाये संविधान की आत्मा को तो रोज कुचला ही जा रहा है, कोई नहीं जानता वह अपने वर्तमान स्वरूप में 2024 के बाद बचेगा भी कि नहीं! कानून के राज और न्यायिक प्रक्रिया की दिन-दहाड़े धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं।
जिस हिन्दूराष्ट्र के बारे में डॉ. अंबेडकर ने बिना लाग लपेट भविष्यवाणी की थी कि यह भारत के लिए सबसे बड़ी त्रासदी साबित होगा- क्योंकि यह स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के लिए खतरा है, इसलिए लोकतंत्र के साथ चलने में अक्षम है- वह आज हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है। शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि हमारा लोकतन्त्र आज उसके जबड़े में हैं!
जिन दलितों की बेहतरी और मुक्ति उनका स्वप्न थी, life-time मिशन थी, वे आज सर्वांगीण तबाही का सामना कर रहे हैं। आज़ादी के दौर से आज तक डॉ. अंबेडकर व अन्य प्रगतिशील ताकतों के नेतृत्व में चले संघर्षों के बल पर हासिल उनकी सारी उपलब्धियों-रोजी रोजगार, जमीन-पट्टा, पढ़ाई, दवाई, सरकारी नौकरियों-आरक्षण,
अधिकारों और पहचान-सब पर आज ग्रहण लग गया है। तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद अब-तक जारी सामाजिक प्रगति के उनके सफर को उल्टी दिशा में मोड़ा जा रहा है। दलित राजनीति गहरे अवसरवाद, विचारधारात्मक समर्पण, समझौते और बिखराव की शिकार हो गयी है। दलित-मुक्ति का स्वप्न आज अधर में है। दलित समुदाय जिस चौराहे पर आज खड़ा है, वहां से भविष्य का रास्ता अनिश्चितताओं और आशंकाओं से भरा है।
उधर संघ-भाजपा ने डॉ. अंबेडकर के जन्मदिन 14 अप्रैल से बुद्ध जयंती 5 मई तक दलितों के बीच " घर-घर जोड़ो अभियान " चलाने का ऐलान किया है।
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस regime ने दलितों की चौतरफा तबाही में कोई कसर नहीं छोड़ी है, जिनकी हिन्दूराष्ट्र की समूची विचारधारा अम्बेडकरवाद के पूर्ण निषेध पर खड़ी है, उसके सर्वोच्च नेता को 'अंबेडकर का सच्चा अनुयायी ' बताया जा रहा है और दोनों की एक तरह से तुलना करते हुए महिमामण्डित किया जा रहा है, "अंबेडकर एंड मोदी : रिफॉर्मर्स आइडियाज, परफॉर्मर्स इम्प्लीमेंटेशन " !
डॉ. अंबेडकर के साथ शायद इससे भद्दा मजाक दूसरा हो नहीं सकता। पर आज की post-truth दुनिया में यह झूठा नैरेटिव गढ़ कर दलितों के गले उतारने का युद्ध-स्तर पर प्रयास किया जा रहा है।
दरअसल, मोदी राज में कारपोरेट लूट और विनाशकारी अर्थनीति के फलस्वरूप हाशिये के जिन तबकों की भौतिक जिंदगी सबसे ज्यादा बदहाल हुई है, उसमें दलितों की विराट बहुसंख्या प्रमुख है। साथ ही हिंदुत्व के eco-system में सामंती-ब्राह्मणवादी ताकतों का जो दबदबा है, शासन-सत्ता व समाज में जिस तरह उनके वर्चस्व का पुनरूत्थान हुआ है, उसके चलते social pyramid के आखिरी पायदान पर खड़े दलित समुदाय की सामाजिक-राजनीतिक हैसियत में इस दौर में भारी गिरावट आई है और उनका बड़ा हिस्सा जो अभी भी मुख्यतः मजदूर, भूमिहीन-गरीब किसान है, वह हर तरह के बदतरीन सामाजिक अन्याय और पुलिसिया जुल्म और दमन का शिकार हो रहा है।
इन हालात में स्वाभाविक रूप से उनके अंदर गहरी बेचैनी और असंतोष खदबदा रहा है। संघ-भाजपा उन्हें कर्मकांडी-साम्प्रदायिक मिथ्या चेतना से आप्लावित करके, 5 किलो मुफ्त अनाज बांटकर या दलित-आदिवासी राष्ट्रपति जैसे symbolic acts से उनके unrest को contain करने और बसपा के पराभव से पैदा vacuum का फायदा उठाते हुए दलित सामाजिक आधार को हड़पने के लिए गिद्ध दृष्टि लगाए हुए है। दंगाई अभियानों के माध्यम से पूरे देश में दलितों-आदिवासियों को हिंदुत्व के fold में खींच ले आने की जीतोड़ कोशिश जारी है।
दरअसल डॉ. अंबेडकर ने अपनी वैचारिकी और जीवन-संघर्षों से हिन्दू धर्म से जो एक सुस्पष्ट विभाजन रेखा खींची थी, कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट धारा समेत तमाम प्रगतिशील जाति-विरोधी, ब्राह्मणवाद-विरोधी प्रगतिशील आंदोलनों ने, दलित पैंथर से लेकर DS4, बामसेफ, शुरुआती दिनों के बसपा आंदोलन तक ने दलितों की जिस स्वतंत्र आत्मचेतना का निर्माण किया था, उसके चलते वे हिंदुत्व के प्रभाव से एक हद तक अलग थे।
लेकिन मायावती जी ने भाजपा से बारम्बार राजनीतिक एकता बनाकर और अंततः विचारधारात्मक समर्पण करके दलित समुदाय के बीच हिंदुत्व के खतरनाक विचारों के प्रवेश के लिए रास्ता साफ कर दिया। दूरगामी दृष्टि से उन्होंने एक तरह से सबसे बड़ी disservice किया है दलित आंदोलन के प्रति।
आज विपक्ष तथा लोकतान्त्रिक ताकतों के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है कि समाज के आखिरी पायदान पर खड़े मेहनतकश दलित समुदाय के भीतर संघ-भाजपा की बढ़ती घुसपैठ की कैसे काट की जाय।
कम्युनिस्ट आंदोलन की ताकतें दलितों-आदिवासियों के सामाजिक उत्पीड़न समेत उनके वर्गीय सवालों पर लड़ाई तेज करने में लगी हैं।
उधर पिछले दिनों कांग्रेस ने कर्नाटक के दलित मूल के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाया है, तो हाल के दिनों में UP में समाजवादी पार्टी ने दलितों के बीच अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए मुहिम शुरू की है। दरअसल, यह बहुजन तबकों के consolidation पर जोर देने की सपा की नई रणनीति का हिस्सा लगता है, जिसमें जाति जनगणना जैसे सवालों को भी उठाया जा रहा है। पूर्व बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य को आगे करके शुरू किए गए इस अभियान के तहत अखिलेश यादव ने हाल ही में रायबरेली में बसपा संस्थापक कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण किया।
बहरहाल असली सवाल यह है कि क्या विपक्ष दलित समुदाय के मूलभूत सवालों के प्रति सचमुच ईमानदार है और ठोस नीतिगत बदलाव द्वारा उनके समाधान का विश्वसनीय आश्वासन दे सकता है ?
क्या विपक्ष जमीन के सवाल को जो दलितों के सारे संकटों व अमानवीय जीवन के मूल में है, हल करेगा? हाल ही में योगी सरकार के एक फैसले के अनुसार उद्योग के नाम पर अब दलितों की जमीन खरीदी जा सकती है, जो अब तक निषिद्ध था। सरकार ग्राम-समाज, वनभूमि, सरकारी जमीन के नाम पर दलितों-आदिवासियों को उजाड़ने पर लगी है।
क्या विपक्ष यह सुनिश्चित करेगा कि दलितों को किसी जमीन (ग्राम समाज सहित) पर झोंपड़ी अथवा मकान बना कर रहने पर बेदखल नहीं किया जाएगा और उक्त भूमि उसके नाम करने का शासनदेश जारी किया जाएगा?
क्या विपक्ष सार्वजनिक क्षेत्र-उद्यमों, सेवाओं के निजीकरण द्वारा सरकारी नौकरियों और आरक्षण खत्म करने की मोदी राज की नीति को पलटेगा और नौकरियां तथा आरक्षण बचाने का ठोस आश्वासन देगा? क्या मीडिया, judiciary, निजी क्षेत्र समेत, जीवन के हर क्षेत्र में affirmative एक्शन द्वारा दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाएगा?
क्या दलितों-गरीबों के लिए क्वालिटी शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं की गारंटी की जाएगी, जिससे भाजपा राज में हो रहे निजीकरण द्वारा दलितों को बहिष्कृत किया जा रहा है?
क्या विपक्ष भाजपा राज में बढ़े मनोबल के कारण ग्रामीण दबंगों व पुलिस गठजोड़ द्वारा दलितों पर ढाए जा रहे जुल्म के अंत के लिए ठोस कदम उठाएगा? क्या वह SC-ST Act के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करेगा?
जाहिर है डॉ. अंबेडकर या कांशीराम के नाम पर प्रतीकात्मक कार्यक्रमों या महज जाति जनगणना जैसे सवाल उठाकर विपक्ष दलितों को संघ-भाजपा के साथ जाने से रोकने और अपने पक्ष में गोलबंद करने में सफल नहीं हो सकता, बल्कि ठोस नीतिगत बदलाव के आश्वासन द्वारा उनका विश्वास जीतना होगा।
2024 में भाजपा की निर्णायक शिकस्त की यह जरूरी पूर्वशर्त है।
आज डॉ. अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उन्होंने जिस हिन्दूराष्ट्र को भारत के लिए, दलितों-उत्पीड़ितों के लिए सबसे बड़ी विपदा के रूप में देखा था और उसे किसी भी कीमत पर रोकने का आह्वान किया था, उसे शिकस्त देने के लिए बाबा साहब से प्यार करने वाले, उनके विचारों से प्रेरणा लेने वाली सारी ताकतें एकताबद्ध हों और एक आधुनिक लोकतान्त्रिक राष्ट्र के निर्माण के उनके सपने को मंजिल तक पहुंचाएं।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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