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आधुनिक काल के संत फादर स्टेन स्वामी

फादर स्टेन की संस्थागत हत्या (Father Stan's Institutional Murder) हमें याद दिलाती है कि कैसे इस देश में हमेशा से संतों को सत्ताधारियों के हाथों प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है. इससे हमारे देश और हमारी संस्कृति का कद छोटा ही होता है.
फादर स्टेन स्वामी

गत 5 जुलाई 2021 को भारतीय मानवाधिकार आंदोलन ने अपना एक प्रतिबद्ध, सिद्धांतवादी और अथक योद्धा खो दिया.

फॉदर स्टेनीलॉस लोरडूस्वामी, जो स्टेन स्वामी के नाम से लोकप्रिय थे, ने मुंबई के होली स्पिरिट अस्पताल में अंतिम सांस ली. जिस समय वे अपनी मृत्युशैया पर थे उस समय उनकी जमानत की याचिका पर अदालत में सुनवाई हो रही थी. वे भीमा-कोरेगांव मामले में तालोजा जेल में कैद थे. एनआईए ने उन पर आतंकवादी होने का आरोप लगाया था. वे अत्यंत सख्त गैर-कानूनी गतिविधियां (निरोधक) कानून (यूएपीए) के अंतर्गत आरोपी बनाए गए सबसे बुजुर्ग व्यक्ति थे. इस कानून के अंतर्गत प्रकरण की सुनवाई के लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं है और अभियोजन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह किसी निश्चित अवधि के भीतर आरोपी के विरूद्ध सबूत प्रस्तुत करे. बिना समुचित कारण के आरोपियों को लंबे समय तक जेल में रखा जा सकता है.

फादर स्टेन स्वामी को लगभग 8 माह पहले गिरफ्तार किया गया था.

भीमा-कोरेगांव में हुई जिस घटना के सिलसिले में फादर स्टेन स्वामी को आरोपी बनाया गया था वह 1 जुलाई 2018 को हुई थी. उस दिन सन् 1818 में पेशवा की सेना के साथ हुए युद्ध में मारे गए दलित योद्धाओं को श्रद्धांजलि देकर लौट रहे हजारों दलितों पर हमले हुए थे. भीमा-कोरेगांव युद्ध, पेशवा बाजीराव की सेना जिसके अधिकांश सैनिक उच्च जातियों के थे, और ईस्ट इंडिया कंपनी की महार-बहुसंख्यक सेना के बीच हुआ था. इस युद्ध में पेशवा की हार को दलितों ने जातिवादी ताकतों की पराजय के रूप में देखा और उसका उत्सव मनाया. युद्धस्थल पर एक विजय स्तंभ का निर्माण किया गया और हर साल 1 जुलाई को हजारों की संख्या मे दलित, ब्राह्मणवादी ताकतों की पराजय का उत्सव मनाने वहां पहुंचने लगे. बाबासाहेब अंबेडकर ने भी सन् 1928 में भीमा-कोरेगांव पहुंचकर दलित सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी. भीमा-कोरेगांव का विजय स्तंभ, दलितों के लिए एक प्रतीक था. वहां जाकर वे अपने आपको सशक्त महसूस करते थे.

सन् 2018 में इस युद्ध के दो सौ साल पूरे होने पर लाखों दलितों ने वहां पहुंचकर दलितों के उत्थान और ब्राह्मणवादी शक्तियों के पतन के संघर्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की थी. दलितों पर हमले के तुरंत बाद, दो हिन्दुत्ववादी नेताओं, संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे, के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी. जस्टिस पी. बी. सावंत और जस्टिस कोलसे पाटिल ने भीमा-कोरेगांव में एलगार परिषद का आयोजन किया था.

बाद में इस प्रकरण की जांच राज्य सरकार से लेकर एनआईए को सौंप दी गई.

एनआईए ने कहा कि हिंसा की योजना माओवादियों ने बनाई थी और एक के बाद एक कई लोगों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया. इनमें शामिल थे सुरेन्द्र गार्डलिंग, वरनान गौंसालवेस, अरूण फरेरा, सुधा भारद्वाज और शोमा सेन. आरोप यह लगाया गया कि ये लोग सरकार का तख्ता पलट करना चाहते थे और प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की योजना बना रहे थे. गिरफ्तार लोगों को 'शहरी नक्सल' बताया गया, अर्थात ऐसे लोग जो शहरों में रहकर नक्सली गतिविधियों को प्रोत्साहित करते हैं.

इस मामले में एनआईए ने अब तक अपने आरोपों के समर्थन में कोई सबूत प्रस्तुत नहीं किया है. हां, ऐसे सबूत अवश्य सामने आए हैं जो आरोपों का खोखलापन दर्शाते हैं.

अमरीकी कंपनी आर्सनेल कंसलटिंग के अनुसार रोना विल्सन और सुरेन्द्र गार्डलिंग के लैपटाप में कथित पत्र एक षड़यंत्र के तहत बाद में डाले गए थे. अदालत ने इस तथ्य का संज्ञान नहीं लिया है. इस मामले में केवल क्रांतिकारी कवि वरवरा राव को स्वास्थ्य कारणों से 6 माह की जमानत दी गई है.

स्टेन स्वामी को जमानत नहीं मिल सकी. वे पार्किन्संस डिजीज से पीड़ित थे. उन्हें पानी और चाय पीने लिए सिपर तक उपलब्ध नहीं कराया गया. स्टेन स्वामी ने जेल से एक पत्र लिखा, जिसका शीर्षक था "पिंजरे के पंछी भी गा सकते हैं".

उन्होंने लिखा कि जेल में बंद अन्य कैदी हर तरह से उनकी मदद कर रहे हैं परंतु उनके शरीर की स्थिति खराब होती जा रही है. इसके काफी दिनों बाद अदालत ने एक सामुदायिक अस्पताल में उनका इलाज करवाने की इजाजत दी. उन्हें जमानत फिर भी नहीं दी गई. इस बीच उन्हें कोरोना भी हो गया जिससे वे और कमजोर हो गए. उनकी मृत्यु पर भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर के अनेक मानवाधिकार संगठनों ने शोक व्यक्त किया है. संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार उच्चायोग के कार्यालय और यूरोपीय यूनियन के मानवाधिकार प्रतिनिधि ने उनकी मृत्यु पर गहरा दुःख और चिंता व्यक्त की है.

फादर झारखंड के आदिवासियों के बीच काम करते थे. भाजपा सरकार इस राज्य की अमूल्य प्राकृतिक संपदा को आदिवासियों से छीनकर उद्योग जगत के कुबेरपतियों के हवाले कर रही थी. इसका विरोध करने वाले हजारों आदिवासियों को जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया गया था. फादर स्टेन स्वामी, आदिवासियों के साथ मजबूती से खड़े थे. उन्होंने लिखा था "अगर आप इस तरह के विकास का विरोध करते हैं तो आप विकास विरोधी हैं; जो विकास विरोधी है, वो सरकार विरोधी है और जो सरकार विरोधी है वह राष्ट्र विरोधी है. यह बहुत स्पष्ट समीकरण है. यही कारण है कि सरकार मुझे माओवादी कहती है यद्यपि मैं माओवादियों के तरीकों का विरोधी हूं और मेरा उनसे कोई लेना-देना नही है."

फादर स्टेन स्वामी उस दल के सदस्य थे जिसने सन् 2016 में झारखंड में आदिवासियों की स्थिति पर एक रपट तैयार की थी. इस रपट का शीर्षक था, "प्राकृतिक संसाधनों पर अपने अधिकारों से वंचित आदिवासियों को मिल रहा है जेल". उनका जीवन अत्यंत सादा था. वे आदिवासियों के बीच रहते थे और उनके अधिकारों के लिए लड़ते थे.

हमने एक महान मानवाधिकार कार्यकर्ता को खो दिया है जो कभी शोहरत के पीछे नहीं भागा और जिसने हमेशा गरीब आदिवासियों के हकों की लड़ाई लड़ी.

स्टेन स्वामी के साथ जो कुछ हुआ वह हमारी न्यायपालिका की असंवेदनशीलता को भी दर्शाता है. उन पर प्रधानमंत्री की हत्या का षड़यंत्र रचने का अत्यंत अविश्वसनीय आरोप था! दरअसल स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी प्रतिरोध की आवाजों को कुचलने का प्रयास थी. उन लोगों की आवाज को जो महात्मा गांधी के शब्दों में आखिरी पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े हैं. आज की सरकारों की कृपादृष्टि पहली पंक्ति में सबसे आगे खड़े लोगों पर है.

हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब एक ओर वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संघ से जुड़े संगठन आदिवासियों को हिन्दू धर्म के झंडे तले लाने में जुटे हुए हैं तो दूसरी ओर आदिवासियों के हकों के लिए लड़ने वाले स्टेन स्वामी जैसे लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ रही है.

इस महान व्यक्ति की तुलना केवल उन संतों से की जा सकती है जो न्याय और नैतिकता हिमायती थे. फादर स्टेन की संस्थागत हत्या (Father Stan's Institutional Murder) हमें याद दिलाती है कि कैसे इस देश में हमेशा से संतों को सत्ताधारियों के हाथों प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है. इससे हमारे देश और हमारी संस्कृति का कद छोटा ही होता है.

अब समय आ गया है कि हम सब एक मंच पर आकर सभी हाशियाकृत समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ें. फादर स्टेन स्वामी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएं और प्रजातांत्रिक मूल्यों के हनन का पुरजोर विरोध करें.

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन्  2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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