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कानपुर शहर से थोड़ी ही दूर… हमले से पहले और हमले के बाद

औरतें बुरी तरह से घायल हैं, अपने घावों के दर्द से परेशान हैं। लेकिन सबमें न्याय के लिए लड़ने की निष्ठा है। एक नई चेतना, एक नई हिम्मत उनमें दिखाई देती है।
Kanpur

कानपुर शहर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर, कानपुर देहात का ज़िला शुरू हो जाता है। कानपुर में कारखाने हैं, हालांकि उनमे से कई बंद हैं, मॉल भी हैं, शहरी चमक-धमक भी है। कानपुर में इस बात का एहसास आता-जाता है कि हम 21वीं सदी मे पहुँच चुके हैं। सही तो यह है कि कानपुर मे इस बात का भी एहसास होता रहता है कि 20वीं सदी मे ही रह गए हैं। और, ऐसी भी जगह हैं जो हमें 19वीं सदी मे पहुंचा देती हैं। लेकिन, कुल मिलाकर, हाँ, कानपुर में 21वीं सदी की हवा बहने लगी है।

लेकिन, शहर सीमा से बाहर निकलिए और कानपुर देहात आते आते, पिछली सदियाँ घेरने लगती हैं। शायद यही कारण है कि कानपुर देहात के बहुत सारे हिस्सों मे रहने वाले नागरिकों ने आंदोलन किए कि उनके इलाके को कानपुर शहर मे जोड़ दिया जाये और कई तहसीले जोड़ भी दी गईं। अब इस जोड़ने से उनका प्रवेश 21वीं सदी में हुआ कि नहीं इसकी जानकारी तो नहीं है लेकिन यह सच है कि जो जगह कानपुर देहात में ही रह गयी हैं वहाँ तो 21वी सदी अभी पहुँचने का इंतज़ार कर रही है।

कानपुर देहात का बड़ा हिस्सा आज भी सामंती रिश्तों का गढ़ है। इसका बड़ा इलाका है जिसमे दलितों के पास अपनी एक बिसवा ज़मीन भी नहीं। उनमें से ज़्यादातर लोग दूसरों की ज़मीनों पर मज़दूरी करते थे। यहां दूसरे जमींदार थे और हैं, ऊंची जातियों के जमींदार। अब हालत कुछ बदले हैं। जमींदार खेती से अपने आपको अलग करते जा रहे हैं। वे ठेकेदार हैं, नेता हैं, अधिकारी हैं, फौज और पुलिस मे सिपाही से लेकर अफ़सर हैं। खेती से अलग होने पर भी वे ज़मीन के मालिक तो हैं ही, अब वह अपनी ज़मीन बंटाई पर देते हैं और कई बंटाईदार उनके पुराने मजदूरों के परिवारजन हैं।

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याद रखने की बात है कि इसी कानपुर देहात के बड़ा इलाका आज़ादी के बाद से लेकर एक दशक पहले तक ‘अर्जक संघ’ के प्रभाव मे था। निश्चित तौर पर यह सामंतों की ताकत और उनके द्वारा किया जा रहा उत्पीड़न का दूसरा पहलू था। अर्जक संघ के लोग मनुवाद के विरुद्ध ज़बरदस्त तरीके से अभियान चलाया करते थे। ऊंची जातियों के लोगों के वर्चस्व को स्वीकार नहीं करते थे। अंध-विश्वास के घनघोर विरोधी थे। इसका परिणाम था कि इलाके के बड़े हिस्से मे प्रगतिशील विचारधारा का प्रसार हुआ और रामस्वरूप वर्मा जैसे नेता लगातार विधायक का चुनाव भी जीतते रहे। लेकिन पिछले दशकों मे बहुत परिवर्तन आया है। प्रगतिशील विचारों से प्रभावित पिछड़ी खेतिहर जातियों के लोगों में आपसी प्रतियोगिता, खास तौर से राजनीतिक प्रतियोगिता के चलते, उनका वह हिस्सा जो अर्जक संघ का सबसे प्रबल समर्थक था, उसमे टूटन पैदा हुई।

इस हिस्से का बहुमत अर्जक संघ की विचारधारा से हटकर अन्य राजनीतिक संगठनों से जुड़ने लगा। आखिरकार वह भाजपा-समर्थक बन गया और इसके फलस्वरूप ऊंची जाति के लोगों और उनकी मानसिकता का पुराना वर्चस्व एक बार फिर कायम हो गया।

इसी कानपुर देहात के सामंती गढ़ मे एक गाँव है मंडका। वह कानपुर से झांसी की ओर जाने वाली आम सड़क से कुछ ही दूरी पर है। यह बड़ा गाँव है। इसमें दलित परिवारों की संख्या 400-500 के आस पास है। उसी गाँव मे इतने ही घर ठाकुरों और ब्राह्मणों के हैं। इन्ही वर्षों मे, इस इलाके के दलितों मे भी नई चेतना पैदा हुई है। अर्जक संघ का पुराना प्रभाव उनके अंदर मिटा नहीं और बीएसपी के ताकतवर होने के बाद, यह चेतना नए रूप धारण करने लगी। डॉ. अंबेडकर की मूर्तियाँ गाँव-गाँव मे लागने लगी। 14 अप्रैल ज़ोर-शोर से मनाया जाने लगा। कहीं कहीं तो ‘रावण मेलों’ का भी आयोजन किया गया। और, पिछले एक-आध वर्षों से, ‘भीम कथा’ का आयोजन कुछ गांवों मे शुरू हो गया।

सत्यनारायण की कथा के तर्ज़ पर इस आयोजन मे हफ्ता-दस दिन तक, लगातार, डॉ. अंबेडकर और गौतम बुद्ध की जीवनी की कथा दलित परिवार के लोग इकठ्ठा होकर सुनते हैं। कथा समाप्ति पर भोज होता है। कथा के माध्यम से अंध विश्वास को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है, बुद्ध और अंबेडकर की विचारधारा से लोगों को परिचित किया जाता है।

तो अबकी साल, मंडका गाँव मे भी 1 से 10 फरवरी तक ‘भीम कथा’ का आयोजन किया गया। इस आयोजन की पहल करने वाले गाँव के भुईयादीन जी हैं जो बड़े ही अनोखे व्यक्तित्व के धनी हैं। वह बिलकुल पढ़े लिखे नहीं हैं लेकिन उनमे गजब का आत्मविश्वास है। उनके बारे मे कहा जाता है की वह किसी से दबते नहीं हैं और गलत बात को बर्दाश्त नहीं करते हैं। न्याय का पक्ष हमेशा लेते हैं और इसी लिए गाँव मे उनका काफी सम्मान है। ज़ाहिर है कि इन्हीं बातों को लेकर उनका विरोध भी होता है। कई सालों से वह एक ऐसे ठाकुर की ज़मीन को बंटाई पर लेकर जोतते-बोते हैं जो अब उनही पर ज़मीन की पूरी ज़िम्मेदारी छोडकर गाँव छोड़ चुके हैं।

भुईयादीन अंधविश्वास और करम-कांड के प्रबल विरोधी हैं और अपने गाँव के लोगों को वह इनसे मुक्ति दिलवाने की फिराक मे रहते थे। जब भीम कथाएँ पड़ोस के गांवो मे होने लगीं तो उन्होने भी अपने गाँव मे भीम कथा के आयोजन की बात लोगों से की और नवजवानों को उस काम मे लगा दिया।

गाँव में ही कुछ लोगों ने नए घर बनवा लिए हैं और उन्होने अपनी छोड़ी हुई ज़मीन को कथा-स्थल के लिए दान मे दे दी। 14 जनवरी से ही तयारी शुरू कर दी गयी। ज़मीन को समतल करके, कथा का स्थान बनाया गया। उसके चारों तरफ झंडियाँ लगाई गईं। बुद्ध की छोटी मूर्ति वहाँ बैठाई गयी और डा. अंबेडकर का पोस्टर लगाया गया जिस पर उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार करने वालों के लिए जो 22 शर्ते तय की थी, वह भी दर्ज थे। और कथा हुई।

कथा स्थल बहुत ही सुंदर है। उसके बगल मे ही, थोड़ा नीचे उतरकर, एक तालाब है जिसमें आज कल कई तरह की पंछी दिखाई देते हैं जिनमे सारस भी हैं। जगह को बड़े चाव से लीपा पोता भी गया है और आज भी हवा में झंडियाँ लहरा रही हैं और बुद्ध की मूर्ति भी अपनी जगह पर लगी हुई है। लेकिन, 12 तारीख को, कथा समाप्त होने के बाद, उसके बाद होने वाले भोज के बाद, बाबा साहेब का पोस्टर फाड़ दिया गया।

12 तारीख को दिन में, ठाकुर लड़कों का ग्रुप कथास्थल पर पहुंचा और उन्होंने बाबासाहब का पोस्टर फाड़ दिया। इसका विरोध वहाँ मौजूद दलितों ने किया। कहा सुनी होने लगी। पूर्व प्रधान ने हस्तक्षेप करके दोनों पक्षों को शांत किया, ठाकुरों से गलती मनवाई और कहा कि आगे ऐसा कुछ नहीं होगा। मामला शांत हो गया। लेकिन केवल दलितों की तरफ से।

कहा यह जाता है कि 12 की रात में ही ठाकुरों की बैठक हुई। गरम गरम बातें कही गईं। गाँव के कुछ ठाकुर जो पुलिस, सेना इत्यादि मे काम करते हैं, वह भी वहाँ मौजूद थे, शादी मे आए थे। हो सकता है कि उनकी उपस्थिति ने आग में घी का काम किया होगा।

13 तारीख को सुबह करीब 9 बजे 200-300 ऊंची जाति की भीड़ ने, जिसमें 15 और 30 साल की उम्र के लड़के थे, दलितों पर हमला कर दिया। उनके हाथों में लाठी, फारसा, कुल्हाड़ी सब कुछ था। दलितों की तरफ महिलाएं और बच्चे ही थे। मर्द तो सब काम पर जा चुके थे। गाँव के एक छोर मे हमलावरों ने आग लगा दी तो औरतें और बच्चे पानी की बाल्टी लेकर उसे बुझाने दौड़े और उन पर भीषण हमला कर दिया गया।

30-40 महिलाएं बुरी तरह से घायल होकर ज़मीन पर गिर गईं। उसके बाद, हमलावरों ने गाँव से सटे सरकारी प्राथमिक शाला पर हल्ला बोला। शिक्षिका से पता लगाकर कि दलित बच्चे कौन से हैं, उन्हे स्कूल से घसीटकर बेरहमी से पीटा। इस पिटाई में 5 साल के आदर्श का हाथ टूट गया।

थोड़ी देर में पुलिस, जिसे फोन पर दलितों ने ही बुलाया था, पहुँच गयी। तमाम घायलों को अस्पताल पहुँचाने के काम में लग गयी। जो अधिक चोटोल थे, उन्हें कानपुर शहर के अस्पताल मे पहुंचाया। यहाँ करीब 25 घायल औरतें और नवयुवतियाँ हैं। आदर्श भी यहीं है।

कानपुर के अस्पताल में ज्योति है। उसके सर पर 20 टांके लगे हैं। वह BSc कर रही है। अगले महीने उसकी शादी होने वाली थी। अब टल गयी है। उसके बगल वाले पलंग पर वीनस है। उसके सर और शरीर पर चोटें हैं। सामने 60 साल की भाग्यवति है जिसके सर मे पट्टी बंधी हुई है। इसी तरह के तमाम घायल इस अस्पताल में हैं। उनके रिश्तेदार और घरवाले भी वहाँ मौजूद हैं। सब खुलकर बात कर रहे हैं, उन पर जो बीती, उसे बयान कर रहे हैं।

औरतें बुरी तरह से घायल हैं, अपने घावों के दर्द से परेशान हैं। लेकिन सबमें न्याय के लिए लड़ने की निष्ठा है। एक नई चेतना, एक नई हिम्मत उनमें दिखाई देती है। गाँव के लोगों को सुलह करने के लिए बड़े नेता दौड़ रहे हैं। प्रशासन के कुछ लोग भी उनकी हिम्मत पस्त करने मे लगे हैं। कुछ लोग डर भी रहे हैं। कुछ लोग कमजोर भी पड़ रहे हैं। लेकिन कुछ नवयुवतियों में, कुछ औरतों में, कुछ लड़के-लड़कियों मे और कुछ बूढ़ों मे दबने और डरने से इंकार करने का संकल्प भी साफ नज़र आता है।

अस्पताल के एक पलंग पर 5 साल का आदर्श भी लेटा हुआ है। उसका हाथ क्यों तोड़ा गया था? उसे चिह्नित करके, उस पर वार क्यों किया गया था? क्योंकि वह छोटा सा बच्चा सबको ‘जय भीम’ कहकर संबोधित करता था। सुबह उठते ही उसका यह सम्बोधन गाँव मे सुनाई देता था। स्कूल जाता-जाता, रास्ते में जो मिलता, उसे ’जय भीम’ कहकर ही, बड़े जोश के साथ, वह संबोधित करता। अपना हाथ उठाकर, वह जय भीम करता। अस्पताल मे लेटे लेटे भी, वह धीरे से अपना हाथ उठाता है। वह पूरी तरह से उठता नहीं है लेकिन वह उठता है और उसके होंठों से, बहुत धीरे, जय भीम सुनाई देता है।

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